शुक्रवार, 22 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

नामकरण-संस्कार और बाललीला

ततस्तु भगवान् कृष्णो वयस्यैर्व्रजबालकैः ।
सहरामो व्रजस्त्रीणां चिक्रीडे जनयन् मुदम् ॥ २७ ॥
कृष्णस्य गोप्यो रुचिरं वीक्ष्य कौमारचापलम् ।
श्रृण्वन्त्याः किल तन्मातुः इति होचुः समागताः ॥ २८ ॥
वत्सान् मुञ्चन् क्वचिदसमये क्रोशसञ्जातहासः
स्तेयं स्वाद्वत्त्यथ दधिपयः कल्पितैः स्तेययोगैः ।
मर्कान् भोक्ष्यन् विभजति स चेन्नात्ति भाण्डं भिन्नत्ति
द्रव्यालाभे सगृहकुपितो यात्युपक्रोश्य तोकान् ॥ २९ ॥
हस्ताग्राह्ये रचयति विधिं पीठकोलूखलाद्यैः
छिद्रं ह्यन्तर्निहितवयुनः शिक्यभाण्डेषु तद्वित् ।
ध्वान्तागारे धृतमणिगणं स्वाङ्‌गमर्थप्रदीपं
काले गोप्यो यर्हि गृहकृत्येषु सुव्यग्रचित्ताः ॥ ३० ॥
एवं धार्ष्ट्यान्युशति कुरुते मेहनादीनि वास्तौ
स्तेयोपायैर्विरचितकृतिः सुप्रतीको यथास्ते ।
इत्थं स्त्रीभिः सभयनयन श्रीमुखालोकिनीभिः
व्याख्यातार्था प्रहसितमुखी न ह्युपालब्धुमैच्छत् ॥ ३१ ॥

ये व्रजवासियों के कन्हैया स्वयं भगवान्‌ हैं परम सुन्दर और परम मधुर ! अब वे और बलराम अपनी ही उम्र के ग्वालबालों को अपने साथ लेकर खेलने के लिये व्रज में निकल पड़ते और व्रजकी भाग्यवती गोपियों को निहाल करते हुए तरह-तरह के खेल खेलते ॥ २७ ॥ उनके बचपनकी चञ्चलताएँ बड़ी ही अनोखी होती थीं । गोपियों को तो वे बड़ी ही सुन्दर और मधुर लगतीं । एक दिन सब-की-सब इकट्ठी होकर नन्दबाबा के घर आयीं और यशोदा माता को सुना-सुनाकर कन्हैयाके करतूत कहने लगीं ॥ २८ ॥ अरी यशोदा! यह तेरा कान्हा बड़ा नटखट हो गया है। गाय दुहनेका समय न होनेपर भी यह बछड़ोंको खोल देता है और हम डाँटती हैं तो ठठा-ठठाकर हँसने लगता है । यह चोरीके बड़े-बड़े उपाय करके हमारे मीठे-मीठे दही-दूध चुरा-चुराकर खा जाता है । केवल अपने ही खाता तो भी एक बात थी, यह तो सारा दही-दूध वानरोंको बाँट देता है और जब वे भी पेट भर जानेपर नहीं खा पाते, तब यह हमारे माटोंको ही फोड़ डालता है । यदि घरमें कोई वस्तु इसे नहीं मिलती तो यह घर और घरवालोंपर बहुत खीझता है और हमारे बच्चोंको रुलाकर भाग जाता है ॥ २९ ॥ जब हम दही-दूधको छीकोंपर रख देती हैं और इसके छोटे-छोटे हाथ वहाँतक नहीं पहुँच पाते, तब यह बड़े-बड़े उपाय रचता है । कहीं दो-चार पीढ़ोंको एकके ऊपर एक रख देता है । कहीं ऊखलपर चढ़ जाता है तो कहीं ऊखलपर पीढ़ा रख देता है, (कभी-कभी तो अपने किसी साथीके कंधेपर ही चढ़ जाता है ।) जब इतनेपर भी काम नहीं चलता, तब यह नीचेसे ही उन बर्तनोंमें छेद कर देता है । इसे इस बातकी पक्की पहचान रहती है कि किस छीकेपर किस बर्तनमें क्या रखा है । और ऐसे ढंगसे छेद करना जानता है कि किसी को पता तक न चले । जब हम अपनी वस्तुओं को बहुत अँधेरे में छिपा देती हैं, तब नन्दरानी ! तुमने जो इसे बहुत-से मणिमय आभूषण पहना रखे हैं, उनके प्रकाश से अपने-आप ही सब कुछ देख लेता है । इसके शरीरमें भी ऐसी ज्योति है कि जिससे इसे सब कुछ दीख जाता है । यह इतना चालाक है कि कब कौन कहाँ रहता है, इसका पता रखता है और जब हम सब घरके काम-धंधों में उलझी रहती हैं, तब यह अपना काम बना लेता है ॥ ३० ॥ ऐसा करके भी ढिठाईकी बातें करता हैउलटे हमें ही चोर बनाता और अपने घरका मालिक बन जाता है । इतना ही नहीं, यह हमारे लिपे-पुते स्वच्छ घरोंमें मूत्र आदि भी कर देता है । तनिक देखो तो इसकी ओर, वहाँ तो चोरीके अनेकों उपाय करके काम बनाता है और यहाँ मालूम हो रहा है मानो पत्थरकी मूर्ति खड़ी हो ! वाह रे भोले-भाले साधु !इस प्रकार गोपियाँ कहती जातीं और श्रीकृष्णके भीत-चकित नेत्रोंसे युक्त मुखमण्डलको देखती जातीं । उनकी यह दशा देखकर नन्दरानी यशोदाजी उनके मनका भाव ताड़ लेतीं और उनके हृदयमें स्नेह और आनन्दकी बाढ़ आ जाती । वे इस प्रकार हँसने लगतीं कि अपने लाड़ले कन्हैयाको इस बातका उलाहना भी न दे पातीं, डाँटनेकी बाततक नहीं सोच पातीं [*] ॥ ३१ ॥
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[*] भगवान्‌ की लीलापर विचार करते समय यह बात स्मरण रखनी चाहिये कि भगवान्‌ का लीलाधाम, भगवान्‌ के लीलापात्र, भगवान्‌ का लीलाशरीर और उनकी लीला प्राकृत नहीं होती । भगवान्‌ में देह-देही का भेद नहीं है । महाभारत में आया है

न भूतसंघसंस्थानो देवस्य परमात्मन:।
यो वेत्ति भौतिकं देहं कृष्णस्य परमात्मन: ।।
स सर्वस्माद् बहिष्कार्य: श्रौतस्मार्तविधानत: ।
मुखं तस्यावलोक्यापि सचैल: स्नानमाचरेत् ।।

परमात्माका शरीर भूतसमुदायसे बना हुआ नहीं होता । जो मनुष्य श्रीकृष्ण परमात्माके शरीरको भौतिक जानता-मानता है, उसका समस्त श्रौत-स्मार्त कर्मोंसे बहिष्कार कर देना चाहिये अर्थात् उसका किसी भी शास्त्रीय कर्ममें अधिकार नहीं है । यहाँतक कि उसका मुँह देखनेपर भी सचैल (वस्त्रसहित) स्नान करना चाहिये ।

श्रीमद्भागवतमें ही ब्रह्माजीने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति करते हुए कहा है

अस्यापि देव वपुषो मदनुग्रहस्य स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य कोऽपि ।।

आपने मुझपर कृपा करनेके लिये ही यह स्वेच्छामय सच्चिदानन्दस्वरूप प्रकट किया है, यह पाञ्चभौतिक कदापि नहीं है ।

इससे यह स्पष्ट है कि भगवान्‌ का सभी कुछ अप्राकृत होता है । इसी प्रकार यह माखनचोरीकी लीला भी अप्राकृतदिव्य ही है ।

यदि भगवान्‌ के नित्य परम धाममें अभिन्नरूपसे नित्य निवास करनेवाली नित्यसिद्धा गोपियोंकी दृष्टिसे न देखकर केवल साधनसिद्धा गोपियों की दृष्टि से देखा जाय तो भी उनकी तपस्या इतनी कठोर थी, उनकी लालसा इतनी अनन्य थी, उनका प्रेम इतना व्यापक था और उनकी लगन इतनी सच्ची थी कि भक्तवाञ्छाकल्पतरु प्रेमरसमय भगवान्‌ उनके इच्छानुसार उन्हें सुख पहुँचाने के लिये माखनचोरी की लीला करके उनकी इच्छित पूजा ग्रहण करें, चीरहरण करके उनका रहा-सहा व्यवधान का परदा उठा दें और रासलीला करके उनको दिव्य सुख पहुँचायें तो कोई बड़ी बात नहीं है ।

भगवान्‌ की नित्यसिद्धा चिदानन्दमयी गोपियोंके अतिरिक्त बहुत-सी ऐसी गोपियाँ और थीं, जो अपनी महान् साधनाके फलस्वरूप भगवान्‌ की मुक्तजन-वाञ्छित सेवा करनेके लिये गोपियोंके रूपमें अवतीर्ण हुई थीं । उनमेंसे कुछ पूर्वजन्मकी देवकन्याएँ थीं, कुछ श्रुतियाँ थीं, कुछ तपस्वी ऋषि थे और कुछ अन्य भक्तजन । इनकी कथाएँ विभिन्न पुराणोंमें मिलती हैं । श्रुतिरूपा गोपियाँ, जो नेति-नेतिके द्वारा निरन्तर परमात्माका वर्णन करते रहनेपर भी उन्हें साक्षात् रूप से प्राप्त नहीं कर सकतीं, गोपियोंके साथ भगवान्‌के दिव्य रसमय विहारकी बात जानकर गोपियोंकी उपासना करती हैं और अन्तमें स्वयं गोपीरूपमें परिणत होकर भगवान्‌ श्रीकृष्णको साक्षात् अपने प्रियतमरूपसे प्राप्त करती हैं । इनमें मुख्य श्रुतियोंके नाम हैंउद्गीता, सुगीता, कलगीता, कलकण्ठिका और विपञ्ची आदि ।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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