॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)
नामकरण-संस्कार
और बाललीला
भगवान्
के श्रीरामावतार में उन्हें देखकर मुग्ध होनेवाले—अपने-आपको
उनके स्वरूप-सौन्दर्यपर न्योछावर कर देनेवाले सिद्ध ऋषिगण, जिनकी
प्रार्थनासे प्रसन्न होकर भगवान् ने उन्हें गोपी होकर प्राप्त करने का वर दिया था,
व्रजमें गोपीरूपसे अवतीर्ण हुए थे । इसके अतिरिक्त मिथिलाकी गोपी,
कोसलकी गोपी, अयोध्याकी गोपी—पुलिन्दगोपी, रमावैकुण्ठ, श्वेतद्वीप
आदिकी गोपियाँ और जालन्धरी गोपी आदि गोपियोंके अनेकों यूथ थे, जिनको बड़ी तपस्या करके भगवान्से वरदान पाकर गोपीरूपमें अवतीर्ण होनेका
सौभाग्य प्राप्त हुआ था । पद्मपुराण के पातालखण्ड में बहुत-से ऐसे ऋषियोंका वर्णन
है, जिन्होंने बड़ी कठिन तपस्या आदि करके अनेकों कल्पों के
बाद गोपीस्वरूप को प्राप्त किया था । उनमेंसे कुछ के नाम निम्नलिखित हैं—
१.
एक उग्रतपा नामके ऋषि थे । वे अग्रिहोत्री और बड़े दृढ़व्रती थे । उनकी तपस्या
अद्भुत थी । उन्होंने पञ्चदशाक्षरमन्त्रका जाप और रासोन्मत्त नवकिशोर श्यामसुन्दर
श्रीकृष्णका ध्यान किया था । सौ कल्पोंके बाद वे सुनन्दनामक गोपकी कन्या ‘सुनन्दा’ हुए ।
२.
एक सत्यतपा नामके मुनि थे । वे सूखे पत्तोंपर रहकर दशाक्षरमन्त्रका जाप और
श्रीराधाजीके दोनों हाथ पकडक़र नाचते हुए श्रीकृष्णका ध्यान करते थे । दस कल्पके
बाद वे सुभद्रनामक गोपकी कन्या ‘सुभद्रा’ हुए
।
३.
हरिधामा नामके एक ऋषि थे । वे निराहार रहकर ‘क्लीं’ कामबीज से युक्त विंशाक्षरी
मन्त्रका जाप करते थे और माधवीमण्डप में कोमल-कोमल पत्तोंकी शय्यापर लेटे हुए
युगल-सरकारका ध्यान करते थे । तीन कल्पके पश्चात् वे सारङ्ग-नामक गोप के घर ‘रङ्गवेणी’ नामसे अवतीर्ण हुए ।
४.
जाबालि नामके एक ब्रह्मज्ञानी ऋषि थे, उन्होंने एक बार
विशाल वनमें विचरते-विचरते एक जगह बहुत बड़ी बावली देखी । उस बावलीके पश्चिम तटपर
बडक़े नीचे एक तेजस्विनी युवती स्त्री कठोर तपस्या कर रही थी । वह बड़ी सुन्दर थी ।
चन्द्रमाकी शुभ्र किरणोंके समान उसकी चाँदनी चारों ओर छिटक रही थी । उसका बायाँ
हाथ अपनी कमरपर था और दाहिने हाथसे वह ज्ञानमुद्रा धारण किये हुए थी । जाबालिके
बड़ी नम्रताके साथ पूछनेपर उस तापसीने बतलाया—
ब्रह्मविद्याहमतुला
योगीन्द्रैर्या च मृग्यते।
साहं
हरिपदाम्भोजकाम्यया सुचिरं तप: ।।
ब्रह्मानन्देन
पूर्णाहं तेनानन्देन तृप्तधी:।
चराम्यस्मिन्
वने घोरे ध्यायन्ती पुरुषोत्तमम् ।।
तथापि
शून्यमात्मानं मन्ये कृष्णरङ्क्षत विना ।।
‘मैं वह ब्रह्मविद्या हूँ , जिसे बड़े-बड़े योगी सदा
ढूँढ़ा करते हैं । मैं श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी प्राप्तिके लिये इस घोर वनमें उन
पुरुषोत्तमका ध्यान करती हुई दीर्घकालसे तपस्या कर रही हूँ । मैं ब्रह्मानन्दसे
परिपूर्ण हूँ और मेरी बुद्धि भी उसी आनन्दसे परितृप्त है । परंतु श्रीकृष्णका प्रेम
मुझे अभी प्राप्त नहीं हुआ, इसलिये मैं अपनेको शून्य देखती
हूँ ।’ ब्रह्मज्ञानी जाबालिने उसके चरणोंपर गिरकर दीक्षा ली
और फिर व्रजवीथियोंमें विहरनेवाले भगवान्का ध्यान करते हुए वे एक पैरसे खड़े होकर
बड़ी कठोर तपस्या करते रहे । नौ कल्पोंके बाद प्रचण्डनामक गोप के घर वे ‘चित्रगन्धा’ के रूपमें प्रकट हुए ।
५.
कुशध्वजनामक ब्रह्मर्षि के पुत्र शुचिश्रवा और सुवर्ण देवतत्त्वज्ञ थे । उन्होंने
शीर्षासन करके ‘ह्रीं’ हंस-मन्त्रका जाप करते हुए और सुन्दर
कन्दर्प-तुल्य गोकुलवासी दस वर्षकी उम्रके भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान करते हुए घोर
तपस्या की । कल्प के बाद वे व्रजमें सुधीरनामक गोप के घर उत्पन्न हुए ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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