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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)
नामकरण-संस्कार
और बाललीला
इसी
प्रकार और भी बहुत-सी गोपियों के पूर्वजन्म की कथाएँ प्राप्त होती हैं, विस्तारभयसे उन सबका उल्लेख यहाँ नहीं किया गया । भगवान् के लिये इतनी
तपस्या करके इतनी लगन के साथ कल्पों तक साधना करके जिन त्यागी भगवत्प्रेमियों ने
गोपियों का तन-मन प्राप्त किया था, उनकी अभिलाषा पूर्ण
करनेके लिये, उन्हें आनन्द-दान देनेके लिये यदि भगवान् उनकी
मनचाही लीला करते हैं तो इसमें आश्चर्य और अनाचार की कौन-सी बात है ? रासलीलाके प्रसङ्ग में स्वयं भगवान् ने श्रीगोपियों से कहा है—
न
पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि व: ।।
या
माभजन् दुर्जरगेहशृङ्खला: संवृश्च्य तद् व: प्रतियातु साधुना ।।
..............(१०।
३२। २२)
‘गोपियो ! तुमने लोक और परलोकके सारे बन्धनोंको काटकर मुझसे निष्कपट प्रेम
किया है; यदि मैं तुममेंसे प्रत्येकके लिये अलग-अलग अनन्त
कालतक जीवन धारण करके तुम्हारे प्रेमका बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता।
मैं तुम्हारा ऋणी हूँ और ऋणी ही रहूँगा। तुम मुझे अपने साधुस्वभावसे ऋणरहित मानकर
और भी ऋणी बना दो । यही उत्तम है ।’ सर्वलोकमहेश्वर भगवान्
श्रीकृष्ण स्वयं जिन महाभागा गोपियोंके ऋणी रहना चाहते हैं, उनकी
इच्छा, इच्छा होनेसे पूर्व ही भगवान् पूर्ण कर दें—यह तो स्वाभाविक ही है ।
भला
विचारिये तो सही श्रीकृष्णगतप्राणा, श्रीकृष्णरसभावितमति
गोपियोंके मनकी क्या स्थिति थी । गोपियोंका तन, मन, धन—सभी कुछ प्राणप्रियतम श्रीकृष्णका था । वे
संसारमें जीती थीं श्रीकृष्णके लिये, घरमें रहती थीं
श्रीकृष्णके लिये और घरके सारे काम करती थीं श्रीकृष्णके लिये । उनकी निर्मल और
योगीन्द्रदुर्लभ पवित्र बुद्धिमें श्रीकृष्णके सिवा अपना कुछ था ही नहीं ।
श्रीकृष्णके लिये ही, श्रीकृष्णको सुख पहुँचानेके लिये ही,
श्रीकृष्णकी निज सामग्रीसे ही श्रीकृष्णको पूजकर—श्रीकृष्णको सुखी देखकर वे सुखी होती थीं । प्रात:काल निद्रा टूटनेके
समयसे लेकर रातको सोनेतक वे जो कुछ भी करती थीं, सब
श्रीकृष्णकी प्रीतिके लिये ही करती थीं । यहाँतक कि उनकी निद्रा भी श्रीकृष्णमें
ही होती थी । स्वप्न और सुषुप्ति दोनोंमें ही वे श्रीकृष्णकी मधुर और शान्त लीला
देखतीं और अनुभव करती थीं । रातको दही जमाते समय श्यामसुन्दरकी माधुरी छबिका ध्यान
करती हुई प्रेममयी प्रत्येक गोपी यह अभिलाषा करती थी कि मेरा दही सुन्दर जमे,
श्रीकृष्णके लिये उसे बिलोकर मैं बढिय़ा-सा और बहुत-सा माखन निकालूँ
और उसे उतने ही ऊँचे छीकेपर रखूँ, जितनेपर श्रीकृष्णके हाथ
आसानीसे पहुँच सकें । फिर मेरे प्राणधन श्रीकृष्ण अपने सखाओंको साथ लेकर हँसते और
क्रीड़ा करते हुए घरमें पदार्पण करें, माखन लूटें और अपने
सखाओं और बंदरोंको लुटायें, आनन्दमें मत्त होकर मेरे आँगनमें
नाचें और मैं किसी कोनेमें छिपकर इस लीलाको अपनी आँखोंसे देखकर जीवनको सफल करूँ और
फिर अचानक ही पकडक़र हृदयसे लगा लूँ । सूरदासजीने गाया है—
मैया
री,
मोहि माखन भावै। जो मेवा पकवान कहति तू, मोहि
नहीं रुचि आवै ।।
ब्रज-जुवती
इक पाछैं ठाढ़ी,
सुनत स्यामकी बात। मन-मन कहति कबहुँ अपनैं घर, देखौं माखन खात ।।
बैठैं
जाइ मथनियाँकें ढिग,
मैं तब रहौं छपानी। सूरदास प्रभु अंतरजामी, ग्वालिनि-मन
की जानी ।।
एक
दिन श्यामसुन्दर कह रहे थे,
‘मैया ! मुझे माखन भाता है; तू मेवा-पकवानके
लिये कहती है, परंतु मुझे तो वे रुचते ही नहीं ।’ वहीं पीछे एक गोपी खड़ी श्यामसुन्दरकी बात सुन रही थी । उसने मन-ही-मन
कामना की—‘मैं कब इन्हें अपने घर माखन खाते देखूँगी; ये मथानीके पास जाकर बैठेंगे, तब मैं छिप रहूँगी ?’
प्रभु तो अन्तर्यामी हैं, गोपीके मनकी जान गये
और उसके घर पहुँचे तथा उसके घरका माखन खाकर उसे सुख दिया—‘गये
स्याम तिहिं ग्वालिनि कैं घर ।’
उसे
इतना आनन्द हुआ कि वह फूली न समायी । सूरदासजी गाते हैं—
फूली
फिरति ग्वालि मनमें री। पूछति सखी परस्पर बातैं पायो पर्यौ कछू कहुँ तैं री ? ।।
पुलकित
रोम-रोम,
गदगद मुख बानी कहत न आवै। ऐसो कहा आहि सो सखि री, हम कौं क्यों न सुनावै ।।
तन
न्यारा,
जिय एक हमारौ, हम तुम एकै रूप। सूरदास कहै
ग्वालि सखिनि सौं, देख्यौ रूप अनूप ।।
वह
खुशीसे छककर फूली-फूली फिरने लगी । आनन्द उसके हृदयमें समा नहीं रहा था । सहेलियोंने
पूछा—‘अरी, तुझे कहीं कुछ पड़ा धन मिल गया क्या ?’ वह तो यह सुनकर और भी प्रेमविह्वल हो गयी । उसका रोम-रोम खिल उठा, वह गद्गद हो गयी, मुँहसे बोली नहीं निकली । सखियोंने
कहा—‘सखि ! ऐसी क्या बात है, हमें
सुनाती क्यों नहीं ? हमारे तो शरीर ही दो हैं, हमारा जी तो एक ही है—हम-तुम दोनों एक ही रूप हैं ।
भला, हमसे छिपानेकी कौन-सी बात है ?’ तब
उसके मुँहसे इतना ही निकला—‘मैंने आज अनूप रूप देखा है ।’
बस, फिर वाणी रुक गयी और प्रेमके आँसू बहने
लगे ! सभी गोपियोंकी यही दशा थी ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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