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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)
भगवान्
श्रीकृष्णका प्राकट्य
अथ
सर्वगुणोपेतः कालः परमशोभनः ।
यर्हि
एव अजनजन्मर्क्षं शान्तर्क्ष-ग्रहतारकम् ॥ १ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! अब समस्त शुभ गुणों से युक्त बहुत सुहावना समय आया । रोहिणी
नक्षत्र था । आकाश के सभी नक्षत्र, ग्रह और तारे शान्त—सौम्य हो रहे थे[*] ॥ १ ॥
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[*]
जैसे अन्त:करण शुद्ध होनेपर उसमें भगवान् का आविर्भाव होता है, श्रीकृष्णावतार के अवसरपर भी ठीक उसी प्रकारका समष्टि की शुद्धिका वर्णन
किया गया है । इसमें काल, दिशा, पृथ्वी,
जल, अग्नि, वायु,
आकाश, मन और आत्मा—इन नौ
द्रव्योंका अलग-अलग नामोल्लेख करके साधकके लिये एक अत्यन्त उपयोगी साधन-पद्धतिकी
ओर संकेत किया गया है ।
काल—
भगवान्
काल से परे हैं । शास्त्रों और सत्पुरुषोंके द्वारा ऐसा निरूपण सुनकर काल मानो
क्रुद्ध हो गया था और रुद्ररूप धारण करके सबको निगल रहा था । आज जब उसे मालूम हुआ
कि स्वयं परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण मेरे अंदर अवतीर्ण हो रहे हैं, तब वह आनन्दसे भर गया और समस्त सद्गुणोंको धारणकर तथा सुहावना बनकर प्रकट
हो गया ।
दिशा—
१
. प्राचीन शास्त्रोंमें दिशाओंको देवी माना गया है । उनके एक-एक स्वामी भी होते
हैं—जैसे प्राचीके इन्द्र, प्रतीचीके वरुण आदि । कंसके
राज्य-कालमें ये देवता पराधीन—कैदी हो गये थे । अब भगवान्
श्रीकृष्णके अवतारसे देवताओंकी गणनाके अनुसार ग्यारह-बारह दिनोंमें ही उन्हें
छुटकारा मिल जायगा, इसलिये अपने पतियोंके सङ्गम-सौभाग्यका
अनुसंधान करके देवियाँ प्रसन्न हो गयीं । जो देव एवं दिशाके परिच्छेदसे रहित हैं,
वे ही प्रभु भारत देशके व्रज-प्रदेशमें आ रहे हैं, यह अपूर्व आनन्दोत्सव भी दिशाओंकी प्रसन्नताका हेतु है ।
२.
संस्कृत-साहित्यमें दिशाओंका एक नाम ‘आशा’ भी है । दिशाओंकी प्रसन्नताका एक अर्थ यह भी है कि अब सत्पुरुषोंकी
आशा-अभिलाषा पूर्ण होगी ।
३.
विराट् पुरुषके अवयव-संस्थानका वर्णन करते समय दिशाओंको उनका कान बताया गया है ।
श्रीकृष्णके अवतारके अवसरपर दिशाएँ मानो यह सोचकर प्रसन्न हो गयीं कि प्रभु
असुर-असाधुओंके उपद्रवसे दुखी प्राणियोंकी प्रार्थना सुननेके लिये सतत सावधान हैं
।
पृथ्वी—
१.
पुराणोंमें भगवान् की दो पत्नियोंका उल्लेख मिलता है—एक श्रीदेवी और दूसरी भूदेवी । ये दोनों चल-सम्पत्ति और अचल-सम्पत्तिकी
स्वामिनी हैं । इनके पति हैं—भगवान्, जीव
नहीं । जिस समय श्रीदेवीके निवासस्थान वैकुण्ठसे उतरकर भगवान् भूदेवीके
निवासस्थान पृथ्वीपर आने लगे, तब जैसे परदेशसे पतिके आगमनका
समाचार सुनकर पत्नी सज-धजकर अगवानी करनेके लिये निकलती है, वैसे
ही पृथ्वीका मङ्गलमयी होना, मङ्गलचिह्नोंको धारण करना
स्वाभाविक ही है ।
२.
भगवान् के श्रीचरण मेरे वक्ष:स्थलपर पड़ेंगे, अपने सौभाग्यका ऐसा
अनुसन्धान करके पृथ्वी आनन्दित हो गयी ।
३.
वामन ब्रह्मचारी थे । परशुरामजीने ब्राह्मणोंको दान दे दिया । श्रीरामचन्द्रने
मेरी पुत्री जानकीसे विवाह कर लिया । इसलिये उन अवतारोंमें मैं भगवान् से जो सुख
नहीं प्राप्त कर सकी,
वही श्रीकृष्णसे प्राप्त करूँगी । यह सोचकर पृथ्वी मङ्गलमयी हो गयी
।
४.
अपने पुत्र मङ्गलको गोदमें लेकर पतिदेवका स्वागत करने चली ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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