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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०२)
भगवान्
श्रीकृष्णका प्राकट्य
जल
(नदियाँ)—
१.
नदियोंने विचार किया कि रामावतारमें सेतु-बन्धके बहाने हमारे पिता पर्वतोंको हमारी
ससुराल समुद्रमें पहुँचाकर इन्होंने हमें मायकेका सुख दिया था । अब इनके शुभागमनके
अवसरपर हमें भी प्रसन्न होकर इनका स्वागत करना चाहिये ।
२.
नदियाँ सब गङ्गाजीसे कहती थीं—‘तुमने हमारे पिता पर्वत देखे
हैं, अपने पिता भगवान् विष्णुके दर्शन कराओ ।’ गङ्गाजीने सुनी-अनसुनी कर दी । अब वे इसलिये प्रसन्न हो गयीं कि हम स्वयं
देख लेंगी ।
३.
यद्यपि भगवान् समुद्रमें नित्य निवास करते हैं, फिर भी
ससुराल होनेके कारण वे उन्हें वहाँ देख नहीं पातीं । अब उन्हें पूर्णरूपसे देख
सकेंगी, इसलिये वे निर्मल हो गयीं ।
४.
निर्मल हृदयको भगवान् मिलते हैं, इसलिये वे निर्मल हो गयीं ।
५.
नदियोंको जो सौभाग्य किसी भी अवतारमें नहीं मिला । वह कृष्णावतारमें मिला ।
श्रीकृष्णकी चतुर्थ पटरानी हैं—श्रीकालिन्दीजी । अवतार लेते ही
यमुनाजीके तटपर जाना, ग्वालबाल एवं गोपियोंके साथ जलक्रीडा
करना, उन्हें अपनी पटरानी बनाना—इन सब
बातोंको सोचकर नदियाँ आनन्दसे भर गयीं ।
ह्रद—
कालिय-दमन
करके कालिय-दहका शोधन,
ग्वालबालों और अक्रूरको ब्रह्म-ह्रदमें ही अपने स्वरूपके दर्शन आदि
स्व-सम्बन्धी लीलाओंका अनुसन्धान करके ह्रदोंने कमलके बहाने अपने प्रफुल्लित
हृदयको ही श्रीकृष्णके प्रति अर्पित कर दिया । उन्होंने कहा कि ‘प्रभो ! भले ही हमें लोग जड समझा करें, आप हमें कभी
स्वीकार करेंगे, इस भावी सौभाग्यके अनुसन्धानसे हम सहृदय हो
रहे हैं।’
अग्नि—
१.
इस अवतारमें श्रीकृष्णने व्योमासुर, तृणावर्त, कालियके दमनसे आकाश, वायु और जलकी शुद्धि की है ।
मृद्-भक्षणसे पृथ्वीकी और अग्रिपानसे अग्रिकी । भगवान् श्रीकृष्णने दो बार
अग्रिको अपने मुँहमें धारण किया । इस भावी सुखका अनुसन्धान करके ही अग्रिदेव शान्त
होकर प्रज्वलित होने लगे ।
२.
देवताओंके लिये यज्ञ-भाग आदि बन्द हो जानेके कारण अग्निदेव भी भूखे ही थे । अब
श्रीकृष्णावतारसे अपने भोजन मिलनेकी आशासे अग्रिदेव प्रसन्न होकर प्रज्वलित हो उठे
।
वायु—
१.
उदारशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णके जन्मके अवसरपर वायुने सुख लुटाना प्रारम्भ किया; क्योंकि समान शीलसे ही मैत्री होती है । जैसे स्वामीके सामने सेवक,
प्रजा अपने गुण प्रकट करके उसे प्रसन्न करती है, वैसे ही वायु भगवान् के सामने अपने गुण प्रकट करने लगे ।
२.
आनन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्रके मुखारविन्दपर जब श्रमजनित स्वेदविन्दु आ जायँगे, तब मैं ही शीतल-मन्द सुगन्ध गतिसे उसे सुखाऊँगा—यह
सोचकर पहलेसे ही वायु सेवाका अभ्यास करने लगा ।
३.
यदि मनुष्यको प्रभु-चरणारविन्दके दर्शनकी लालसा हो तो उसे विश्वकी सेवा ही करनी
चाहिये,
मानो यह उपदेश करता हुआ वायु सबकी सेवा करने लगा ।
४.
रामावतारमें मेरे पुत्र हनुमान् ने भगवान् की सेवा की, इससे मैं कृतार्थ ही हूँ; परंतु इस अवतारमें मुझे
स्वयं ही सेवा कर लेनी चाहिये । इस विचारसे वायु लोगोंको सुख पहुँचाने लगा ।
५.
सम्पूर्ण विश्वके प्राण वायु ने सम्पूर्ण विश्व की ओर से भगवान् के स्वागत-समारोह
में प्रतिनिधित्व किया ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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