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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०३)
भगवान्
श्रीकृष्णका प्राकट्य
आकाश—
१.
आकाशकी एकता,
आधारता, विशालता और समताकी उपमा तो सदासे ही
भगवान्के साथ दी जाती रही, परंतु अब उसकी झूठी नीलिमा भी
भगवान्के अङ्गसे उपमा देनेसे चरितार्थ हो जायगी, इसलिये
आकाश ने मानो आनन्दोत्सव मनानेके लिये नीले चँदोवेमें हीरोंके समान तारोंकी झालरें
लटका ली हैं ।
२.
स्वामीके शुभागमनके अवसरपर जैसे सेवक स्वच्छ वेष-भूषा धारण करते हैं और शान्त हो
जाते हैं,
इसी प्रकार आकाशके सब नक्षत्र, ग्रह, तारे शान्त एवं निर्मल हो गये । वक्रता, अतिचार और
युद्ध छोडक़र श्रीकृष्णका स्वागत करने लगे ।
नक्षत्र—
मैं
देवकीके गर्भसे जन्म ले रहा हूँ तो रोहिणीके संतोषके लिये कम-से-कम रोहिणी
नक्षत्रमें जन्म तो लेना ही चाहिये । अथवा चन्द्रवंशमें जन्म ले रहा हूँ, तो चन्द्रमाकी सबसे प्यारी पत्नी रोहिणीमें ही जन्म लेना उचित है । यह
सोचकर भगवान् ने रोहिणी नक्षत्रमें जन्म लिया ।
मन—
१.
योगी मनका निरोध करते हैं,
मुमुक्षु निर्विषय करते हैं और जिज्ञासु बाध करते हैं । तत्त्वज्ञोंने
तो मनका सत्यानाश ही कर दिया । भगवान्के अवतारका समय जानकर उसने सोचा कि अब तो
मैं अपनी पत्नी—इन्द्रियाँ और विषय—बाल-बच्चे
सबके साथ ही भगवान् के साथ खेलूँगा । निरोध और बाधसे पिण्ड छूटा । इसीसे मन
प्रसन्न हो गया ।
२.
निर्मलको ही भगवान् मिलते हैं, इसलिये मन निर्मल हो गया ।
३.
वैसे शब्द,
स्पर्श, रूप, रस,
गन्धका परित्याग कर देनेपर भगवान् मिलते हैं । अब तो स्वयं भगवान्
ही वह सब बनकर आ रहे हैं । लौकिक आनन्द भी प्रभुमें मिलेगा । यह सोचकर मन प्रसन्न
हो गया ।
४.
वसुदेवके मनमें निवास करके ये ही भगवान् प्रकट हो रहे हैं । वह हमारी ही जातिका
है,
यह सोचकर मन प्रसन्न हो गया ।
५.
सुमन (देवता और शुद्ध मन) को सुख देनेके लिये ही भगवान्का अवतार हो रहा है । यह
जानकर सुमन प्रसन्न हो गये ।
६.
संतोंमें,
स्वर्गमें और उपवनमें सुमन (शुद्ध मन, देवता
और पुष्प) आनन्दित हो गये । क्यों न हो, माधव (विष्णु और
वसन्त) का आगमन जो हो रहा है ।
भाद्रमास—
भद्र
अर्थात् कल्याण देनेवाला है । कृष्णपक्ष स्वयं कृष्णसे सम्बद्ध है । अष्टमी तिथि
पक्षके बीचोबीच सन्धि-स्थलपर पड़ती है । रात्रि योगीजनोंको प्रिय है । निशीथ
यतियोंका सन्ध्याकाल और रात्रिके दो भागोंकी सन्धि है । उस समय श्रीकृष्णके
आविर्भावका अर्थ है—अज्ञानके घोर अन्धकारमें दिव्य प्रकाश । निशानाथ चन्द्रके वंशमें जन्म
लेना है, तो निशाके मध्यभागमें अवतीर्ण होना उचित भी है ।
अष्टमीके चन्द्रोदयका समय भी वही है । यदि वसुदेवजी मेरा जातकर्म नहीं कर सकते तो
हमारे वंशके आदिपुरुष चन्द्रमा समुद्रस्नान करके अपने कर-किरणोंसे अमृतका वितरण
करें ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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