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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)
भगवान्
श्रीकृष्णका प्राकट्य
दिशः
प्रसेदुर्गगनं निर्मलोडुगणोदयम् ।
मही
मंगलभूयिष्ठ पुरग्राम-व्रजाकरा ॥ २ ॥
नद्यः
प्रसन्नसलिला ह्रदा जलरुहश्रियः ।
द्विजालिकुल
सन्नाद स्तबका वनराजयः ॥ ३ ॥
ववौ
वायुः सुखस्पर्शः पुण्यगन्धवहः शुचिः ।
अग्नयश्च
द्विजातीनां शान्तास्तत्र समिन्धत ॥ ४ ॥
मनांस्यासन्
प्रसन्नानि साधूनां असुरद्रुहाम् ।
जायमानेऽजने
तस्मिन् नेदुर्दुन्दुभयो दिवि ॥ ५ ॥
जगुः
किन्नरगन्धर्वाः तुष्टुवुः सिद्धचारणाः ।
विद्याधर्यश्च
ननृतुः अप्सरोभिः समं तदा ॥ ६ ॥
मुमुचुर्मुनयो
देवाः सुमनांसि मुदान्विताः ।
मन्दं
मन्दं जलधरा जगर्जुः अनुसागरम् ॥ ७ ॥
निशीथे
तम उद्भूते जायमाने जनार्दने ।
देवक्यां
देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः ।
आविरासीद्
यथा प्राच्यां दिशि इन्दुरिव पुष्कलः ॥ ८ ॥
दिशाएँ
स्वच्छ प्रसन्न थीं |
पृथ्वीके बड़े बड़े नगर, छोटे छोटे गाँव,
अहीरोंकी बस्तियाँ और हीरे आदिकी खानें मङ्गलमय हो रही थीं ॥ २ ॥
नदियोंका जल निर्मल हो गया था । रात्रिके समय भी सरोवरोंमें कमल खिल रहे थे ।
वनमें वृक्षोंकी पंक्तियाँ रंग-बिरंगे पुष्पोंके गुच्छोंसे लद गयी थीं । कहीं
पक्षी चहक रहे थे, तो कहीं भौंरे गुनगुना रहे थे ॥ ३ ॥ उस
समय परम पवित्र और शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु अपने स्पर्शसे लोगोंको सुखदान करती हुई
बह रही थी । ब्राह्मणोंके अग्निहोत्र की कभी न बुझनेवाली अग्नियाँ जो कंसके
अत्याचारसे बुझ गयी थीं, वे इस समय अपने-आप जल उठीं ॥ ४ ॥
संत
पुरुष पहले से ही चाहते थे कि असुरों की बढ़ती न होने पाये । अब उनका मन सहसा
प्रसन्नतासे भर गया । जिस समय भगवान् के आविर्भावका अवसर आया, स्वर्गमें देवताओंकी दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं ॥ ५ ॥ किन्नर और गन्धर्व
मधुर स्वरमें गाने लगे तथा सिद्ध और चारण भगवान् के मङ्गलमय गुणोंकी स्तुति करने
लगे । विद्याधरियाँ अप्सराओंके साथ नाचने लगीं ॥ ६ ॥ बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि
आनन्दसे भरकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे[*] । जलसे भरे हुए बादल समुद्रके पास जाकर
धीरे-धीरे गर्जना करने लगे[#] ॥ ७ ॥ जन्म-मृत्युके चक्रसे छुड़ानेवाले जनार्दनके
अवतारका समय था निशीथ । चारों ओर अन्धकारका साम्राज्य था । उसी समय सबके हृदयमें
विराजमान भगवान् विष्णु देवरूपिणी देवकीके गर्भसे प्रकट हुए, जैसे पूर्व दिशा में सोलहों कलाओंसे पूर्ण चन्द्रमाका उदय हो गया हो ॥ ८ ॥
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[*]
ऋषि,
मुनि और देवता जब अपने सुमनकी वर्षा करनेके लिये मथुराकी ओर दौड़े,
तब उनका आनन्द भी पीछे छूट गया और उनके पीछे-पीछे दौडऩे लगा ।
उन्होंने अपने निरोध और बाधसम्बन्धी सारे विचार त्यागकर मनको श्रीकृष्णकी ओर
जानेके लिये मुक्त कर दिया, उनपर न्योछावर कर दिया ।
[#]
१. मेघ समुद्र के पास जाकर मन्द-मन्द गर्जना करते हुए कहते—जलनिधे ! यह तुम्हारे उपदेश (पास आने) का फल है कि हमारे पास जल-ही-जल हो
गया । अब ऐसा कुछ उपदेश करो कि जैसे तुम्हारे भीतर भगवान् रहते हैं, वैसे हमारे भीतर भी रहें ।
२.
बादल समुद्र के पास जाते और कहते कि समुद्र ! तुम्हारे हृदयमें भगवान् रहते हैं, हमें भी उनका दर्शन-प्यार प्राप्त करवा दो । समुद्र उन्हें थोड़ा-सा जल
देकर कह देता—अपनी उत्ताल तरङ्गों से ढकेल देता—जाओ अभी विश्वकी सेवा करके अन्त:करण शुद्ध करो, तब
भगवान् के दर्शन होंगे । स्वयं भगवान् मेघश्याम बनकर समुद्रसे बाहर व्रजमें आ
रहे हैं । हम धूपमें उनपर छाया करेंगे, अपनी फुइयाँ बरसाकर
जीवन न्योछावर करेंगे और उनकी बाँसुरीके स्वरपर ताल देंगे । अपने इस सौभाग्यका
अनुसन्धान करके बादल समुद्रके पास पहुँचे और मन्द-मन्द गर्जना करने लगे ।
मन्द-मन्द इसलिये कि यह ध्वनि प्यारे श्रीकृष्णके कानोंतक न पहुँच जाय ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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