सोमवार, 4 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

भगवान्‌ श्रीकृष्णका प्राकट्य

दिशः प्रसेदुर्गगनं निर्मलोडुगणोदयम् ।
मही मंगलभूयिष्ठ पुरग्राम-व्रजाकरा ॥ २ ॥
नद्यः प्रसन्नसलिला ह्रदा जलरुहश्रियः ।
द्विजालिकुल सन्नाद स्तबका वनराजयः ॥ ३ ॥
ववौ वायुः सुखस्पर्शः पुण्यगन्धवहः शुचिः ।
अग्नयश्च द्विजातीनां शान्तास्तत्र समिन्धत ॥ ४ ॥
मनांस्यासन् प्रसन्नानि साधूनां असुरद्रुहाम् ।
जायमानेऽजने तस्मिन् नेदुर्दुन्दुभयो दिवि ॥ ५ ॥
जगुः किन्नरगन्धर्वाः तुष्टुवुः सिद्धचारणाः ।
विद्याधर्यश्च ननृतुः अप्सरोभिः समं तदा ॥ ६ ॥
मुमुचुर्मुनयो देवाः सुमनांसि मुदान्विताः ।
मन्दं मन्दं जलधरा जगर्जुः अनुसागरम् ॥ ७ ॥
निशीथे तम उद्‍भूते जायमाने जनार्दने ।
देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः ।
आविरासीद् यथा प्राच्यां दिशि इन्दुरिव पुष्कलः ॥ ८ ॥

दिशाएँ स्वच्छ प्रसन्न थीं | पृथ्वीके बड़े बड़े नगर, छोटे छोटे गाँव, अहीरोंकी बस्तियाँ और हीरे आदिकी खानें मङ्गलमय हो रही थीं ॥ २ ॥ नदियोंका जल निर्मल हो गया था । रात्रिके समय भी सरोवरोंमें कमल खिल रहे थे । वनमें वृक्षोंकी पंक्तियाँ रंग-बिरंगे पुष्पोंके गुच्छोंसे लद गयी थीं । कहीं पक्षी चहक रहे थे, तो कहीं भौंरे गुनगुना रहे थे ॥ ३ ॥ उस समय परम पवित्र और शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु अपने स्पर्शसे लोगोंको सुखदान करती हुई बह रही थी । ब्राह्मणोंके अग्निहोत्र की कभी न बुझनेवाली अग्नियाँ जो कंसके अत्याचारसे बुझ गयी थीं, वे इस समय अपने-आप जल उठीं ॥ ४ ॥
संत पुरुष पहले से ही चाहते थे कि असुरों की बढ़ती न होने पाये । अब उनका मन सहसा प्रसन्नतासे भर गया । जिस समय भगवान्‌ के आविर्भावका अवसर आया, स्वर्गमें देवताओंकी दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं ॥ ५ ॥ किन्नर और गन्धर्व मधुर स्वरमें गाने लगे तथा सिद्ध और चारण भगवान्‌ के मङ्गलमय गुणोंकी स्तुति करने लगे । विद्याधरियाँ अप्सराओंके साथ नाचने लगीं ॥ ६ ॥ बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि आनन्दसे भरकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे[*] । जलसे भरे हुए बादल समुद्रके पास जाकर धीरे-धीरे गर्जना करने लगे[#] ॥ ७ ॥ जन्म-मृत्युके चक्रसे छुड़ानेवाले जनार्दनके अवतारका समय था निशीथ । चारों ओर अन्धकारका साम्राज्य था । उसी समय सबके हृदयमें विराजमान भगवान्‌ विष्णु देवरूपिणी देवकीके गर्भसे प्रकट हुए, जैसे पूर्व दिशा में सोलहों कलाओंसे पूर्ण चन्द्रमाका उदय हो गया हो ॥ ८ ॥
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[*] ऋषि, मुनि और देवता जब अपने सुमनकी वर्षा करनेके लिये मथुराकी ओर दौड़े, तब उनका आनन्द भी पीछे छूट गया और उनके पीछे-पीछे दौडऩे लगा । उन्होंने अपने निरोध और बाधसम्बन्धी सारे विचार त्यागकर मनको श्रीकृष्णकी ओर जानेके लिये मुक्त कर दिया, उनपर न्योछावर कर दिया ।
[#] १. मेघ समुद्र के पास जाकर मन्द-मन्द गर्जना करते हुए कहतेजलनिधे ! यह तुम्हारे उपदेश (पास आने) का फल है कि हमारे पास जल-ही-जल हो गया । अब ऐसा कुछ उपदेश करो कि जैसे तुम्हारे भीतर भगवान्‌ रहते हैं, वैसे हमारे भीतर भी रहें ।
२. बादल समुद्र के पास जाते और कहते कि समुद्र ! तुम्हारे हृदयमें भगवान्‌ रहते हैं, हमें भी उनका दर्शन-प्यार प्राप्त करवा दो । समुद्र उन्हें थोड़ा-सा जल देकर कह देताअपनी उत्ताल तरङ्गों से ढकेल देताजाओ अभी विश्वकी सेवा करके अन्त:करण शुद्ध करो, तब भगवान्‌ के दर्शन होंगे । स्वयं भगवान्‌ मेघश्याम बनकर समुद्रसे बाहर व्रजमें आ रहे हैं । हम धूपमें उनपर छाया करेंगे, अपनी फुइयाँ बरसाकर जीवन न्योछावर करेंगे और उनकी बाँसुरीके स्वरपर ताल देंगे । अपने इस सौभाग्यका अनुसन्धान करके बादल समुद्रके पास पहुँचे और मन्द-मन्द गर्जना करने लगे । मन्द-मन्द इसलिये कि यह ध्वनि प्यारे श्रीकृष्णके कानोंतक न पहुँच जाय ।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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