शुक्रवार, 8 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसरा अध्याय..(पोस्ट१२)

भगवान्‌ श्रीकृष्ण का प्राकट्य

मघोनि वर्षत्यसकृत् यमानुजा
गंभीर तोयौघ जवोर्मि फेनिला ।
भयानकावर्त शताकुला नदी
मार्गं ददौ सिन्धुरिव श्रियः पतेः ॥ ५० ॥
नन्दव्रजं शौरिरुपेत्य तत्र तान्
गोपान् प्रसुप्तान् उपलभ्य निद्रया ।
सुतं यशोदाशयने निधाय तत्
सुतां उपादाय पुनर्गृहान् अगात् ॥ ५१ ॥
देवक्याः शयने न्यस्य वसुदेवोऽथ दारिकाम् ।
प्रतिमुच्य पदोर्लोहं आस्ते पूर्ववदावृतः ॥ ५२ ॥
यशोदा नन्दपत्‍नी च जातं परमबुध्यत ।
न तल्लिङ्गं परिश्रान्ता निद्रयापगतस्मृतिः ॥ ५३ ॥

उन दिनों बार-बार वर्षा होती रहती थी, इससे यमुनाजी बहुत बढ़ गयी थीं[*] । उनका प्रवाह गहरा और तेज हो गया था । तरल तरङ्गोंके कारण जलपर फेन-ही-फेन हो रहा था । सैकड़ों भयानक भँवर पड़ रहे थे । जैसे सीतापति भगवान्‌ श्रीरामजीको समुद्रने मार्ग दे दिया था, वैसे ही यमुनाजीने भगवान्‌ को मार्ग दे दिया[$] ॥ ५० ॥ वसुदेवजीने नन्दबाबाके गोकुलमें जाकर देखा कि सब-के-सब गोप नींदसे अचेत पड़े हुए हैं । उन्होंने अपने पुत्रको यशोदाजीकी शय्यापर सुला दिया और उनकी नवजात कन्या लेकर वे बंदीगृहमें लौट आये ॥ ५१ ॥ जेलमें पहुँचकर वसुदेवजीने उस कन्या को देवकीकी शय्यापर सुला दिया और अपने पैरोंमें बेडिय़ाँ डाल लीं तथा पहलेकी तरह वे बंदीगृहमें बंद हो गये ॥ ५२ ॥ उधर नन्दपत्नी यशोदाजीको इतना तो मालूम हुआ कि कोई सन्तान हुई है, परंतु वे यह न जान सकीं कि पुत्र है या पुत्री । क्योंकि एक तो उन्हें बड़ा परिश्रम हुआ था और दूसरे योगमाया ने उन्हें अचेत कर दिया था[#] ॥ ५३ ॥
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[*] १. श्रीकृष्ण शिशुको अपनी ओर आते देखकर यमुनाजीने विचार कियाअहा ! जिनके चरणोंकी धूलि सत्पुरुषोंके मानस-ध्यानका विषय है, वे ही आज मेरे तटपर आ रहे हैं । वे आनन्द और प्रेमसे भर गयीं, आँखोंसे इतने आँसू निकले कि बाढ़ आ गयी ।
२. मुझे यमराजकी बहिन समझकर श्रीकृष्ण अपनी आँख न फेर लें, इसलिये वे अपने विशाल जीवनका प्रदर्शन करने लगीं ।
३. ये गोपालन के लिये गोकुलमें जा रहे हैं, ये सहस्र-सहस्र लहरियाँ गौएँ ही तो हैं । ये उन्हींके समान इनका भी पालन करें ।
४. एक कालियनाग तो मुझमें पहलेसे ही हैं, यह दूसरे शेषनाग आ रहे हैं । अब मेरी क्या गति होगीयह सोचकर यमुनाजी अपने थपेड़ोंसे उनका निवारण करनेके लिये बढ़ गयीं ।

[$] १. एकाएक यमुनाजीके मनमें विचार आया कि मेरे अगाध जलको देखकर कहीं श्रीकृष्ण यह न सोच लें कि मैं इसमें खेलूँगा कैसे, इसलिये वे तुरंत कहीं कण्ठभर, कहीं नाभिभर और कहीं घुटनोंतक जलवाली हो गयीं ।
२. जैसे दुखी मनुष्य दयालु पुरुषके सामने अपना मन खोलकर रख देता है, वैसे ही कालियनागसे त्रस्त अपने हृदयका दु:ख निवेदन कर देनेके लिये यमुनाजीने भी अपना दिल खोलकर श्रीकृष्णके सामने रख दिया ।
३. मेरी नीरसता देखकर श्रीकृष्ण कहीं जलक्रीडा करना और पटरानी बनाना अस्वीकार न कर दें, इसलिये वे उच्छृङ्खलता छोडक़र बड़ी विनयसे अपने हृदयकी संकोचपूर्ण रसरीति प्रकट करने लगीं ।
४. जब इन्होंने सूर्यवंशमें रामावतार ग्रहण किया, तब मार्ग न देनेपर चन्द्रमाके पिता समुद्रको बाँध दिया था । अब ये चन्द्रवंशमें प्रकट हुए हैं और मैं सूर्यकी पुत्री हूँ । यदि मैं इन्हें मार्ग न दूँगी तो ये मुझे भी बाँध देंगे । इस डरसे मानो यमुनाजी दो भागोंमें बँट गयीं ।
५. सत्पुरुष कहते हैं कि हृदयमें भगवान्‌के आ जानेपर अलौकिक सुख होता है । मानो उसीका उपभोग करनेके लिये यमुनाजीने भगवान्‌ को अपने भीतर ले लिया ।
६. मेरा नाम कृष्णा, मेरा जल कृष्ण, मेरे बाहर श्रीकृष्ण हैं । फिर मेरे हृदयमें ही उनकी स्फूर्ति क्यों न हो ? ऐसा सोचकर मार्ग देनेके बहाने यमुनाजीने श्रीकृष्णको अपने हृदयमें ले लिया ।

[#] भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने इस प्रसङ्ग में यह प्रकट किया कि जो मुझे प्रेमपूर्वक अपने हृदयमें धारण करता है, उसके बन्धन खुल जाते हैं, जेल से छुटकारा मिल जाता है, बड़े-बड़े फाटक टूट जाते हैं, पहरेदारों का पता नहीं चलता, भव-नदीका जल सूख जाता है, गोकुल (इन्द्रिय-समुदाय) की वृत्तियाँ लुप्त हो जाती हैं और माया हाथ में आ जाती है ।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे कृष्णजन्मनि तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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