॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट१२)
भगवान्
श्रीकृष्ण का प्राकट्य
मघोनि
वर्षत्यसकृत् यमानुजा
गंभीर
तोयौघ जवोर्मि फेनिला ।
भयानकावर्त
शताकुला नदी
मार्गं
ददौ सिन्धुरिव श्रियः पतेः ॥ ५० ॥
नन्दव्रजं
शौरिरुपेत्य तत्र तान्
गोपान्
प्रसुप्तान् उपलभ्य निद्रया ।
सुतं
यशोदाशयने निधाय तत्
सुतां
उपादाय पुनर्गृहान् अगात् ॥ ५१ ॥
देवक्याः
शयने न्यस्य वसुदेवोऽथ दारिकाम् ।
प्रतिमुच्य
पदोर्लोहं आस्ते पूर्ववदावृतः ॥ ५२ ॥
यशोदा
नन्दपत्नी च जातं परमबुध्यत ।
न
तल्लिङ्गं परिश्रान्ता निद्रयापगतस्मृतिः ॥ ५३ ॥
उन
दिनों बार-बार वर्षा होती रहती थी, इससे यमुनाजी बहुत
बढ़ गयी थीं[*] । उनका प्रवाह गहरा और तेज हो गया था । तरल तरङ्गोंके कारण जलपर
फेन-ही-फेन हो रहा था । सैकड़ों भयानक भँवर पड़ रहे थे । जैसे सीतापति भगवान्
श्रीरामजीको समुद्रने मार्ग दे दिया था, वैसे ही यमुनाजीने
भगवान् को मार्ग दे दिया[$] ॥ ५० ॥ वसुदेवजीने नन्दबाबाके गोकुलमें जाकर देखा कि
सब-के-सब गोप नींदसे अचेत पड़े हुए हैं । उन्होंने अपने पुत्रको यशोदाजीकी शय्यापर
सुला दिया और उनकी नवजात कन्या लेकर वे बंदीगृहमें लौट आये ॥ ५१ ॥ जेलमें पहुँचकर
वसुदेवजीने उस कन्या को देवकीकी शय्यापर सुला दिया और अपने पैरोंमें बेडिय़ाँ डाल
लीं तथा पहलेकी तरह वे बंदीगृहमें बंद हो गये ॥ ५२ ॥ उधर नन्दपत्नी यशोदाजीको इतना
तो मालूम हुआ कि कोई सन्तान हुई है, परंतु वे यह न जान सकीं
कि पुत्र है या पुत्री । क्योंकि एक तो उन्हें बड़ा परिश्रम हुआ था और दूसरे
योगमाया ने उन्हें अचेत कर दिया था[#] ॥ ५३ ॥
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[*]
१. श्रीकृष्ण शिशुको अपनी ओर आते देखकर यमुनाजीने विचार किया—अहा ! जिनके चरणोंकी धूलि सत्पुरुषोंके मानस-ध्यानका विषय है, वे ही आज मेरे तटपर आ रहे हैं । वे आनन्द और प्रेमसे भर गयीं, आँखोंसे इतने आँसू निकले कि बाढ़ आ गयी ।
२.
मुझे यमराजकी बहिन समझकर श्रीकृष्ण अपनी आँख न फेर लें, इसलिये वे अपने विशाल जीवनका प्रदर्शन करने लगीं ।
३.
ये गोपालन के लिये गोकुलमें जा रहे हैं, ये सहस्र-सहस्र
लहरियाँ गौएँ ही तो हैं । ये उन्हींके समान इनका भी पालन करें ।
४.
एक कालियनाग तो मुझमें पहलेसे ही हैं, यह दूसरे शेषनाग आ
रहे हैं । अब मेरी क्या गति होगी—यह सोचकर यमुनाजी अपने
थपेड़ोंसे उनका निवारण करनेके लिये बढ़ गयीं ।
[$]
१. एकाएक यमुनाजीके मनमें विचार आया कि मेरे अगाध जलको देखकर कहीं श्रीकृष्ण यह न
सोच लें कि मैं इसमें खेलूँगा कैसे, इसलिये वे तुरंत
कहीं कण्ठभर, कहीं नाभिभर और कहीं घुटनोंतक जलवाली हो गयीं ।
२.
जैसे दुखी मनुष्य दयालु पुरुषके सामने अपना मन खोलकर रख देता है, वैसे ही कालियनागसे त्रस्त अपने हृदयका दु:ख निवेदन कर देनेके लिये
यमुनाजीने भी अपना दिल खोलकर श्रीकृष्णके सामने रख दिया ।
३.
मेरी नीरसता देखकर श्रीकृष्ण कहीं जलक्रीडा करना और पटरानी बनाना अस्वीकार न कर दें, इसलिये वे उच्छृङ्खलता छोडक़र बड़ी विनयसे अपने हृदयकी संकोचपूर्ण रसरीति
प्रकट करने लगीं ।
४.
जब इन्होंने सूर्यवंशमें रामावतार ग्रहण किया, तब मार्ग न देनेपर
चन्द्रमाके पिता समुद्रको बाँध दिया था । अब ये चन्द्रवंशमें प्रकट हुए हैं और मैं
सूर्यकी पुत्री हूँ । यदि मैं इन्हें मार्ग न दूँगी तो ये मुझे भी बाँध देंगे । इस
डरसे मानो यमुनाजी दो भागोंमें बँट गयीं ।
५.
सत्पुरुष कहते हैं कि हृदयमें भगवान्के आ जानेपर अलौकिक सुख होता है । मानो उसीका
उपभोग करनेके लिये यमुनाजीने भगवान् को अपने भीतर ले लिया ।
६.
मेरा नाम कृष्णा,
मेरा जल कृष्ण, मेरे बाहर श्रीकृष्ण हैं । फिर
मेरे हृदयमें ही उनकी स्फूर्ति क्यों न हो ? ऐसा सोचकर मार्ग
देनेके बहाने यमुनाजीने श्रीकृष्णको अपने हृदयमें ले लिया ।
[#]
भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रसङ्ग में यह प्रकट किया कि जो मुझे प्रेमपूर्वक अपने
हृदयमें धारण करता है,
उसके बन्धन खुल जाते हैं, जेल से छुटकारा मिल
जाता है, बड़े-बड़े फाटक टूट जाते हैं, पहरेदारों का पता नहीं चलता, भव-नदीका जल सूख जाता
है, गोकुल (इन्द्रिय-समुदाय) की वृत्तियाँ लुप्त हो जाती हैं
और माया हाथ में आ जाती है ।
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे
पूर्वार्धे कृष्णजन्मनि तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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