शुक्रवार, 8 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसरा अध्याय..(पोस्ट११)

भगवान्‌ श्रीकृष्ण का प्राकट्य

श्रीशुक उवाच ।
इत्युक्त्वासीत् हरिः तूष्णीं भगवान् आत्ममायया ।
पित्रोः संपश्यतोः सद्यो बभूव प्राकृतः शिशुः ॥ ४६ ॥
ततश्च शौरिः भगवत्प्रचोदितः
सुतं समादाय स सूतिकागृहात् ।
यदा बहिर्गन्तुमियेष तर्ह्यजा
या योगमायाजनि नन्दजायया ॥ ४७ ॥
तया हृतप्रत्यय सर्ववृत्तिषु
द्वाःस्थेषु पौरेष्वपि शायितेष्वथ ।
द्वारस्तु सर्वाः पिहिता दुरत्यया
बृहत् कपाटायस कीलश्रृंखलैः ॥ ४८ ॥
ताः कृष्णवाहे वसुदेव आगते
स्वयं व्यवर्यन्त यथा तमो रवेः ।
ववर्ष पर्जन्य उपांशुगर्जितः
शेषोऽन्वगाद् वारि निवारयन् फणैः ॥ ४९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंभगवान्‌ इतना कहकर चुप हो गये । अब उन्होंने अपनी योगमाया से पिता-माता के देखते-देखते तुरंत एक साधारण शिशु का रूप धारण कर लिया ॥ ४६ ॥ तब वसुदेवजीने भगवान्‌ की प्रेरणा से अपने पुत्र को लेकर सूतिकागृह से बाहर निकलने की इच्छा की । उसी समय नन्दपत्नी यशोदाके गर्भसे उस योगमायाका जन्म हुआ, जो भगवान्‌की शक्ति होनेके कारण उनके समान ही जन्म-रहित है ॥ ४७ ॥ उसी योगमायाने द्वारपाल और पुरवासियोंकी समस्त इन्द्रिय वृत्तियोंकी चेतना हर ली, वे सब-के-सब अचेत होकर सो गये । बंदीगृहके सभी दरवाजे बंद थे । उनमें बड़े-बड़े किवाड़, लोहेकी जंजीरें और ताले जड़े हुए थे । उनके बाहर जाना बड़ा ही कठिन था; परंतु वसुदेवजी भगवान्‌ श्रीकृष्णको गोदमें लेकर ज्यों ही उनके निकट पहुँचे, त्यों ही वे सब दरवाजे आप-से-आप खुल गये [*] । ठीक वैसे ही, जैसे सूर्योदय होते ही अन्धकार दूर हो जाता है । उस समय बादल धीरे-धीरे गरजकर जलकी फुहारें छोड़ रहे थे । इसलिये शेषजी अपने फनों से जल को रोकते हुए भगवान्‌ के पीछे-पीछे चलने लगे [#] ॥ ४८-४९ ॥
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[*] जिनके नाम-श्रवणमात्रसे असंख्य जन्मार्जित प्रारब्ध-बन्धन ध्वस्त हो जाते हैं, वे ही प्रभु जिसकी गोदमें आ गये, उसकी हथकड़ी-बेड़ी खुल जाय, इसमें क्या आश्चर्य है ?

[#] बलरामजीने विचार किया कि मैं बड़ा भाई बना तो क्या, सेवा ही मेरा मुख्य धर्म है । इसलिये वे अपने शेषरूपसे श्रीकृष्णके छत्र बनकर जलका निवारण करते हुए चले । उन्होंने सोचा कि यदि मेरे रहते मेरे स्वामीको वर्षासे कष्ट पहुँचा तो मुझे धिक्कार है । इसलिये उन्होंने अपना सिर आगे कर दिया । अथवा उन्होंने यह सोचा कि ये विष्णुपद (आकाश) वासी मेघ परोपकारके लिये अध:पतित होना स्वीकार कर लेते हैं, इसलिये बलिके समान सिरसे वन्दनीय हैं ।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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