॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट१०)
भगवान्
श्रीकृष्ण का प्राकट्य
श्रीभगवानुवाच
।
त्वमेव
पूर्वसर्गेऽभूः पृश्निः स्वायंभुवे सति ।
तदायं
सुतपा नाम प्रजापतिः अकल्मषः ॥ ३२ ॥
युवां
वै ब्रह्मणाऽऽदिष्टौ प्रजासर्गे यदा ततः ।
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं
तेपाथे परमं तपः ॥ ३३ ॥
वर्षवाता-तप-हिम
घर्मकालगुणाननु ।
सहमानौ
श्वासरोध विनिर्धूत-मनोमलौ ॥ ३४ ॥
शीर्णपर्णा-निलाहारौ
उपशान्तेन चेतसा ।
मत्तः
कामान् अभीप्सन्तौ मद् आराधनमीहतुः ॥ ३५ ॥
एवं
वां तप्यतोस्तीव्रं तपः परमदुष्करम् ।
दिव्यवर्षसहस्राणि
द्वादशेयुः मदात्मनोः ॥ ३६ ॥
तदा
वां परितुष्टोऽहं अमुना वपुषानघे ।
तपसा
श्रद्धया नित्यं भक्त्या च हृदि भावितः ॥ ३७ ॥
प्रादुरासं
वरदराड् युवयोः कामदित्सया ।
व्रियतां
वर इत्युक्ते मादृशो वां वृतः सुतः ॥ ३८ ॥
अजुष्टग्राम्यविषयौ
अनपत्यौ च दम्पती ।
न
वव्राथेऽपवर्गं मे मोहितौ देवमायया ॥ ३९ ॥
गते
मयि युवां लब्ध्वा वरं मत्सदृशं सुतम् ।
ग्राम्यान्
भोगान् अभुञ्जाथां युवां प्राप्तमनोरथौ ॥ ४० ॥
अदृष्ट्वान्यतमं
लोके शीलौदार्यगुणैः समम् ।
अहं
सुतो वामभवं पृश्निगर्भ इति श्रुतः ॥ ४१ ॥
तयोर्वां
पुनरेवाहं अदित्यामास कश्यपात् ।
उपेन्द्र
इति विख्यातो वामनत्वाच्च वामनः ॥ ४२ ॥
तृतीयेऽस्मिन्
भवेऽहं वै तेनैव वपुषाथ वाम् ।
जातो
भूयस्तयोरेव सत्यं मे व्याहृतं सति ॥ ४३ ॥
एतद्
वां दर्शितं रूपं प्राग्जन्म स्मरणाय मे ।
नान्यथा
मद्भवं ज्ञानं मर्त्यलिङ्गेन जायते ॥ ४४ ॥
युवां
मां पुत्रभावेन ब्रह्मभावेन चासकृत् ।
चिन्तयन्तौ
कृतस्नेहौ यास्येथे मद्गतिं पराम् ॥ ४५ ॥
श्रीभगवान्
ने कहा—देवि ! स्वायम्भुव मन्वन्तरमें जब तुम्हारा पहला जन्म हुआ था, उस समय तुम्हारा नाम था पृश्नि और
ये वसुदेव सुतपा नामके प्रजापति थे । तुम दोनोंके हृदय बड़े ही शुद्ध थे ॥ ३२ ॥ जब
ब्रह्माजी ने तुम दोनों को सन्तान उत्पन्न करने की आज्ञा दी, तब तुम लोगों ने इन्द्रियों का दमन करके उत्कृष्ट तपस्या की ॥ ३३ ॥ तुम
दोनों ने वर्षा, वायु, घाम, शीत, उष्ण आदि काल के विभिन्न गुणोंका सहन किया और
प्राणायामके द्वारा अपने मनके मल धो डाले ॥ ३४ ॥ तुम दोनों कभी सूखे पत्ते खा लेते
और कभी हवा पीकर ही रह जाते । तुम्हारा चित्त बड़ा शान्त था । इस प्रकार
तुमलोगोंने मुझसे अभीष्ट वस्तु प्राप्त करनेकी इच्छासे मेरी आराधना की ॥ ३५ ॥
मुझमें चित्त लगाकर ऐसा परम दुष्कर और घोर तप करते-करते देवताओंके बारह हजार वर्ष
बीत गये ॥ ३६ ॥ पुण्यमयी देवि ! उस समय मैं तुम दोनोंपर प्रसन्न हुआ । क्योंकि तुम
दोनोंने तपस्या, श्रद्धा और प्रेममयी भक्तिसे अपने हृदयमें
नित्य-निरन्तर मेरी भावना की थी । उस समय तुम दोनोंकी अभिलाषा पूर्ण करनेके लिये
वर देनेवालोंका राजा मैं इसी रूपसे तुम्हारे सामने प्रकट हुआ । जब मैंने कहा कि ‘तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो’, तब तुम दोनोंने मेरे-जैसा पुत्र माँगा ॥ ३७-३८ ॥ उस समयतक विषय-भोगोंसे
तुम लोगोंका कोई सम्बन्ध नहीं हुआ था । तुम्हारे कोई सन्तान भी न थी । इसलिये मेरी
मायासे मोहित होकर तुम दोनोंने मुझसे मोक्ष नहीं माँगा ॥ ३९ ॥ तुम्हें मेरे-जैसा
पुत्र होनेका वर प्राप्त हो गया और मैं वहाँसे चला गया । अब सफलमनोरथ होकर तुमलोग
विषयोंका भोग करने लगे ॥ ४० ॥ मैंने देखा कि संसारमें शील- स्वभाव, उदारता तथा अन्य गुणोंमें मेरे-जैसा दूसरा कोई नहीं है; इसलिये मैं ही तुम दोनोंका पुत्र हुआ और उस समय मैं ‘पृश्रगिर्भ’के नामसे विख्यात हुआ ॥ ४१ ॥ फिर दूसरे
जन्ममें तुम हुर्ईं अदिति और वसुदेव हुए कश्यप । उस समय भी मैं तुम्हारा पुत्र हुआ
। मेरा नाम था ‘उपेन्द्र’ । शरीर छोटा
होनेके कारण लोग मुझे ‘वामन’ भी कहते
थे ॥ ४२ ॥ सती देवकी ! तुम्हारे इस तीसरे जन्ममें भी मैं उसी रूपसे फिर तुम्हारा
पुत्र हुआ हूँ [*] । मेरी वाणी सर्वदा सत्य होती है ॥ ४३ ॥ मैंने तुम्हें अपना यह
रूप इसलिये दिखला दिया है कि तुम्हें मेरे पूर्व अवतारोंका स्मरण हो जाय । यदि मैं
ऐसा नहीं करता, तो केवल मनुष्य-शरीरसे मेरे अवतारकी पहचान
नहीं हो पाती ॥ ४४ ॥ तुम दोनों मेरे प्रति पुत्रभाव तथा निरन्तर ब्रह्मभाव रखना ।
इस प्रकार वात्सल्य-स्नेह और चिन्तनके द्वारा तुम्हें मेरे परम पदकी प्राप्ति होगी
॥ ४५ ॥
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[*]
भगवान् श्रीकृष्णने विचार किया कि मैंने इनको वर तो यह दे दिया कि मेरे सदृश
पुत्र होगा,
परंतु इसको मैं पूरा नहीं कर सकता । क्योंकि वैसा कोई है ही नहीं ।
किसीको कोई वस्तु देनेकी प्रतिज्ञा करके पूरी न कर सके तो उसके समान तिगुनी वस्तु
देनी चाहिये । मेरे सदृश पदार्थके समान मैं ही हूँ । अतएव मैं अपनेको तीन बार इनका
पुत्र बनाऊँगा ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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