॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०९)
भगवान्
श्रीकृष्ण का प्राकट्य
स
त्वं घोरात् उग्रसेनात्मजात् नः
त्राहि
त्रस्तान् भृत्यवित्रासहासि ।
रूपं
चेदं पौरुषं ध्यानधिष्ण्यं
मा
प्रत्यक्षं मांसदृशां कृषीष्ठाः ॥ २८ ॥
जन्म
ते मय्यसौ पापो मा विद्यात् मधुसूदन ।
समुद्विजे
भवद्धेतोः कंसाद् अहमधीरधीः ॥ २९ ॥
उपसंहर
विश्वात्मन् अदो रूपं अलौकिकम् ।
शंखचक्रगदापद्म
श्रिया जुष्टं चतुर्भुजम् ॥ ३० ॥
विश्वं
यदेतत् स्वतनौ निशान्ते
यथावकाशं
पुरुषः परो भवान् ।
बिभर्ति
सोऽयं मम गर्भगो अभूद्
अहो
नृलोकस्य विडंबनं हि तत् ॥ ३१ ॥
प्रभो
! आप हैं भक्तभयहारी । और हमलोग इस दुष्ट कंससे बहुत ही भयभीत हैं । अत: आप हमारी
रक्षा कीजिये । आपका यह चतुर्भुज दिव्यरूप ध्यानकी वस्तु है । इसे केवल
मांस-मज्जामय शरीरपर ही दृष्टि रखनेवाले देहाभिमानी पुरुषोंके सामने प्रकट मत कीजिये
॥ २८ ॥ मधुसूदन ! इस पापी कंसको यह बात मालूम न हो कि आपका जन्म मेरे गर्भसे हुआ
है । मेरा धैर्य टूट रहा है । आपके लिये मैं कंससे बहुत डर रही हूँ ॥ २९ ॥
विश्वात्मन् ! आपका यह रूप अलौकिक है । आप शङ्ख, चक्र,
गदा और कमलकी शोभासे युक्त अपना यह चतुर्भुजरूप छिपा लीजिये ॥ ३० ॥
प्रलयके समय आप इस सम्पूर्ण विश्वको अपने शरीरमें वैसे ही स्वाभाविक रूपसे धारण
करते हैं, जैसे कोई मनुष्य अपने शरीरमें रहनेवाले छिद्ररूप
आकाशको । वही परम पुरुष परमात्मा आप मेरे गर्भवासी हुए, यह
आपकी अद्भुत मनुष्य-लीला नहीं तो और क्या है ? ॥ ३१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
जय श्री हरि
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