॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०८)
भगवान्
श्रीकृष्ण का प्राकट्य
श्रीशुक
उवाच ।
अथैनं
आत्मजं वीक्ष्य महापुरुष लक्षणम् ।
देवकी
तं उपाधावत् कंसाद् भीता सुचिस्मिता ॥ २३ ॥
श्रीदेवक्युवाच
।
रूपं
यत् तत् प्राहुरव्यक्तमाद्यं
ब्रह्म
ज्योतिर्निर्गुणं निर्विकारम् ।
सत्तामात्रं
निर्विशेषं निरीहं
स
त्वं साक्षात् विष्णुरध्यात्मदीपः ॥ २४ ॥
नष्टे
लोके द्विपरार्धावसाने
महाभूतेषु
आदिभूतं गतेषु ।
व्यक्ते
अव्यक्तं कालवेगेन याते
भवान्
एकः शिष्यते शेषसंज्ञः ॥ २५ ॥
योऽयं
कालस्तस्य तेऽव्यक्तबन्धो
चेष्टां
आहुः चेष्टते येन विश्वम् ।
निमेषादिः
वत्सरान्तो महीयान्
तं
त्वेशानं क्षेमधाम प्रपद्ये ॥ २६ ॥
मर्त्यो
मृत्युव्यालभीतः पलायन्
लोकान्
सर्वान् निर्भयं नाध्यगच्छत् ।
त्वत्पादाब्जं
प्राप्य यदृच्छयाद्य
स्वस्थः
शेते मृत्युरस्मादपैति ॥ २७ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! इधर देवकी ने देखा कि मेरे पुत्रमें तो पुरुषोत्तम भगवान् के
सभी लक्षण मौजूद हैं । पहले तो उन्हें कंससे कुछ भय मालूम हुआ, परंतु फिर वे बड़े पवित्र भावसे मुसकराती हुई स्तुति करने लगीं ॥ २३ ॥
माता
देवकीने कहा—प्रभो ! वेदोंने आपके जिस रूपको अव्यक्त और सबका कारण बतलाया है, जो ब्रह्म, ज्योति:स्वरूप, समस्त
गुणोंसे रहित और विकारहीन है, जिसे विशेषणरहित— अनिर्वचनीय, निष्क्रिय एवं केवल विशुद्ध सत्ताके
रूपमें कहा गया है—वही बुद्धि आदिके प्रकाशक विष्णु आप स्वयं
हैं ॥ २४ ॥ जिस समय ब्रह्माकी पूरी आयु—दो परार्ध समाप्त हो
जाते हैं, कालशक्तिके प्रभावसे सारे लोक नष्ट हो जाते हैं,
पञ्च महाभूत अहंकारमें, अहंकार महत्तत्त्वमें
और महत्तत्त्व प्रकृतिमें लीन हो जाता है—उस समय एकमात्र आप
ही शेष रह जाते हैं । इसीसे आपका एक नाम ‘शेष’ भी है ॥ २५ ॥ प्रकृतिके एकमात्र सहायक प्रभो ! निमेषसे लेकर वर्षपर्यन्त
अनेक विभागोंमें विभक्त जो काल है, जिसकी चेष्टासे यह
सम्पूर्ण विश्व सचेष्ट हो रहा है और जिसकी कोई सीमा नहीं है, वह आपकी लीलामात्र है । आप सर्वशक्तिमान् और परम कल्याणके आश्रय हैं । मैं
आपकी शरण लेती हूँ ॥ २६ ॥ प्रभो ! यह जीव मृत्युग्रस्त हो रहा है । यह मृत्युरूप
कराल व्यालसे भयभीत होकर सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरोंमें भटकता रहा है; परंतु इसे कभी कहीं भी ऐसा स्थान न मिल सका, जहाँ यह
निर्भय होकर रहे । आज बड़े भाग्यसे इसे आपके चरणारविन्दोंकी शरण मिल गयी । अत: अब
यह स्वस्थ होकर सुखकी नींद सो रहा है । औरों की तो बात ही क्या, स्वयं मृत्यु भी इससे भयभीत होकर भाग गयी है ॥ २७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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