॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)
ब्रह्माजी
का मोह और उसका नाश
ततोऽतिकुतुकोद्वृत्त
स्तिमितैकादशेन्द्रियः ।
तद्धाम्नाभूदजस्तूष्णीं
पूर्देव्यन्तीव पुत्रिका ॥ ५६ ॥
इतीरेशेऽतर्क्ये
निजमहिमनि स्वप्रमितिके ।
परत्राजातोऽतन्
निरसनमुखब्रह्मकमितौ ।
अनीशेऽपि
द्रष्टुं किमिदमिति वा मुह्यति सति
चछादाजो
ज्ञात्वा सपदि परमोऽजाजवनिकाम् ॥ ५७ ॥
ततोऽर्वाक्प्रतिलब्धाक्षः
कः परेतवदुत्थितः ।
कृच्छ्राद्
उन्मील्य वै दृष्टीः आचष्टेदं सहात्मना ॥ ५८ ॥
सपद्येवाभितः
पश्यन् दिशोऽपश्यत् पुरःस्थितम् ।
वृन्दावनं
जनाजीव्य द्रुमाकीर्णं समाप्रियम् ॥ ५९ ॥
यत्र
नैसर्गदुर्वैराः सहासन् नृमृगादयः ।
मित्राणीवाजितावास
द्रुतरुट्तर्षकादिकम् ॥ ६० ॥
तत्रोद्वहत्पशुपवंशशिशुत्वनाट्यं
ब्रह्माद्वयं
परमनन्त-मगाधबोधम् ।
वत्सान्
सखीनिव पुरा परितो विचिन्वद्
एकं
सपाणिकवलं परमेष्ठ्यचष्ट ॥ ६१ ॥
दृष्ट्वा
त्वरेण निजधोरणतोऽवतीर्य
पृथ्व्यां
वपुः कनकदण्डमिवाभिपात्य ।
स्पृष्ट्वा
चतुर्मुकुट कोटिभिरङ्घ्रियुग्मं
नत्वा
मुदश्रुसुजलैः अकृताभिषेकम् ॥ ६२ ॥
उत्थायोत्थाय
कृष्णस्य चिरस्य पादयोः पतन् ।
आस्ते
महित्वं प्राग्दृष्टं स्मृत्वा स्मृत्वा पुनः पुनः ॥ ६३ ॥
शनैरथोत्थाय
विमृज्य लोचने
मुकुन्दमुद्वीक्ष्य
विनम्रकन्धरः ।
कृताञ्जलिः
प्रश्रयवान्समाहितः
सवेपथुर्गद्गदयैलतेलया
॥ ६४ ॥
यह
अत्यन्त आश्चर्यमय दृश्य देखकर ब्रह्माजी तो चकित रह गये । उनकी ग्यारहों
इन्द्रियाँ (पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक मन) क्षुब्ध
एवं स्तब्ध रह गयीं । वे भगवान् के तेज से निस्तेज होकर मौन हो गये । उस समय वे
ऐसे स्तब्ध होकर खड़े रह गये, मानो व्रज के अधिष्ठातृ- देवता
के पास एक पुतली खड़ी हो ॥ ५६ ॥ परीक्षित् ! भगवान् का स्वरूप तर्क से परे है ।
उसकी महिमा असाधारण है । वह स्वयंप्रकाश, आनन्दस्वरूप और
माया से अतीत है । वेदान्त भी साक्षात्
रूप से उसका वर्णन करने में असमर्थ है, इसलिये उससे
भिन्न का निषेध करके आनन्दस्वरूप ब्रह्म का किसी प्रकार कुछ संकेत करता है ।
यद्यपि ब्रह्माजी समस्त विद्याओं के अधिपति हैं, तथापि
भगवान् के दिव्यस्वरूप को वे तनिक भी न समझ सके कि यह क्या है । यहाँतक कि वे
भगवान् के उन महिमामय रूपों को देखनेमें भी असमर्थ हो गये । उनकी आँखें मुँद गयीं
। भगवान् श्रीकृष्णने ब्रह्माके इस मोह और असमर्थताको जानकर बिना किसी प्रयासके
तुरंत अपनी मायाका परदा हटा दिया ॥ ५७ ॥ इससे ब्रह्माजीको बाह्यज्ञान हुआ । वे
मानो मरकर फिर जी उठे । सचेत होकर उन्होंने ज्यों-त्यों करके बड़े कष्टसे अपने
नेत्र खोले । तब कहीं उन्हें अपना शरीर और यह जगत् दिखायी पड़ा ॥ ५८ ॥ फिर
ब्रह्माजी जब चारों ओर देखने लगे, तब पहले दिशाएँ और उसके
बाद तुरंत ही उनके सामने वृन्दावन दिखायी पड़ा । वृन्दावन सबके लिये एक-सा प्यारा
है । जिधर देखिये, उधर ही जीवोंको जीवन देनेवाले फल और
फूलोंसे लदे हुए, हरे-हरे पत्तोंसे लहलहाते हुए वृक्षोंकी
पाँतें शोभा पा रही हैं ॥ ५९ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाभूमि होनेके कारण वृन्दावन-
धाममें क्रोध, तृष्णा आदि दोष प्रवेश नहीं कर सकते और वहाँ
स्वभावसे ही परस्पर दुस्त्यज वैर रखनेवाले मनुष्य और पशु-पक्षी भी प्रेमी
मित्रोंके समान हिल-मिलकर एक साथ रहते हैं ॥ ६० ॥ ब्रह्माजीने वृन्दावनका दर्शन
करनेके बाद देखा कि अद्वितीय परब्रह्म गोपवंशके बालकका-सा नाट्य कर रहा है । एक
होनेपर भी उसके सखा हैं, अनन्त होनेपर भी वह इधर-उधर घूम रहा
है और उसका ज्ञान अगाध होनेपर भी वह अपने ग्वालबाल और बछड़ोंको ढूँढ़ रहा है ।
ब्रह्माजीने देखा कि जैसे भगवान् श्रीकृष्ण पहले अपने हाथमें दही-भातका कौर लिये
उन्हें ढूँढ़ रहे थे, वैसे ही अब भी अकेले ही उनकी खोजमें
लगे हैं ॥ ६१ ॥ भगवान् को देखते ही ब्रह्माजी अपने वाहन हंसपरसे कूद पड़े और
सोनेके समान चमकते हुए अपने शरीरसे पृथ्वीपर दण्डकी भाँति गिर पड़े । उन्होंने
अपने चारों मुकुटोंके अग्रभागसे भगवान् के चरण-कमलोंका स्पर्श करके नमस्कार किया
और आनन्दके आँसुओंकी धारासे उन्हें नहला दिया ॥ ६२ ॥ वे भगवान् श्रीकृष्णकी पहले
देखी हुई महिमाका बार-बार स्मरण करते, उनके चरणोंपर गिरते और
उठ-उठकर फिर-फिर गिर पड़ते । इसी प्रकार बहुत देरतक वे भगवान्के चरणोंमें ही पड़े
रहे ॥ ६३ ॥ फिर धीरे-धीरे उठे और अपने नेत्रोंके आँसू पोंछे । प्रेम और मुक्तिके
एकमात्र उद्गम भगवान् को देखकर उनका सिर झुक गया । वे काँपने लगे । अञ्जलि बाँधकर
बड़ी नम्रता और एकाग्रताके साथ गद्गद वाणीसे वे भगवान्की स्तुति करने लगे ॥ ६४ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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