बुधवार, 10 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

ब्रह्माजी का मोह और उसका नाश

ततोऽतिकुतुकोद्‌वृत्त स्तिमितैकादशेन्द्रियः ।
तद्धाम्नाभूदजस्तूष्णीं पूर्देव्यन्तीव पुत्रिका ॥ ५६ ॥
इतीरेशेऽतर्क्ये निजमहिमनि स्वप्रमितिके ।
परत्राजातोऽतन् निरसनमुखब्रह्मकमितौ ।
अनीशेऽपि द्रष्टुं किमिदमिति वा मुह्यति सति
चछादाजो ज्ञात्वा सपदि परमोऽजाजवनिकाम् ॥ ५७ ॥
ततोऽर्वाक्प्रतिलब्धाक्षः कः परेतवदुत्थितः ।
कृच्छ्राद् उन्मील्य वै दृष्टीः आचष्टेदं सहात्मना ॥ ५८ ॥
सपद्येवाभितः पश्यन् दिशोऽपश्यत् पुरःस्थितम् ।
वृन्दावनं जनाजीव्य द्रुमाकीर्णं समाप्रियम् ॥ ५९ ॥
यत्र नैसर्गदुर्वैराः सहासन् नृमृगादयः ।
मित्राणीवाजितावास द्रुतरुट्तर्षकादिकम् ॥ ६० ॥
तत्रोद्वहत्पशुपवंशशिशुत्वनाट्यं
ब्रह्माद्वयं परमनन्त-मगाधबोधम् ।
वत्सान् सखीनिव पुरा परितो विचिन्वद्
एकं सपाणिकवलं परमेष्ठ्यचष्ट ॥ ६१ ॥
दृष्ट्वा त्वरेण निजधोरणतोऽवतीर्य
पृथ्व्यां वपुः कनकदण्डमिवाभिपात्य ।
स्पृष्ट्वा चतुर्मुकुट कोटिभिरङ्‌घ्रियुग्मं
नत्वा मुदश्रुसुजलैः अकृताभिषेकम् ॥ ६२ ॥
उत्थायोत्थाय कृष्णस्य चिरस्य पादयोः पतन् ।
आस्ते महित्वं प्राग्दृष्टं स्मृत्वा स्मृत्वा पुनः पुनः ॥ ६३ ॥
शनैरथोत्थाय विमृज्य लोचने
मुकुन्दमुद्वीक्ष्य विनम्रकन्धरः ।
कृताञ्जलिः प्रश्रयवान्समाहितः
सवेपथुर्गद्‍गदयैलतेलया ॥ ६४ ॥

यह अत्यन्त आश्चर्यमय दृश्य देखकर ब्रह्माजी तो चकित रह गये । उनकी ग्यारहों इन्द्रियाँ (पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक मन) क्षुब्ध एवं स्तब्ध रह गयीं । वे भगवान्‌ के तेज से निस्तेज होकर मौन हो गये । उस समय वे ऐसे स्तब्ध होकर खड़े रह गये, मानो व्रज के अधिष्ठातृ- देवता के पास एक पुतली खड़ी हो ॥ ५६ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ का स्वरूप तर्क से परे है । उसकी महिमा असाधारण है । वह स्वयंप्रकाश, आनन्दस्वरूप और माया से अतीत है । वेदान्त भी साक्षात्  रूप से उसका वर्णन करने में असमर्थ है, इसलिये उससे भिन्न का निषेध करके आनन्दस्वरूप ब्रह्म का किसी प्रकार कुछ संकेत करता है । यद्यपि ब्रह्माजी समस्त विद्याओं के अधिपति हैं, तथापि भगवान्‌ के दिव्यस्वरूप को वे तनिक भी न समझ सके कि यह क्या है । यहाँतक कि वे भगवान्‌ के उन महिमामय रूपों को देखनेमें भी असमर्थ हो गये । उनकी आँखें मुँद गयीं । भगवान्‌ श्रीकृष्णने ब्रह्माके इस मोह और असमर्थताको जानकर बिना किसी प्रयासके तुरंत अपनी मायाका परदा हटा दिया ॥ ५७ ॥ इससे ब्रह्माजीको बाह्यज्ञान हुआ । वे मानो मरकर फिर जी उठे । सचेत होकर उन्होंने ज्यों-त्यों करके बड़े कष्टसे अपने नेत्र खोले । तब कहीं उन्हें अपना शरीर और यह जगत् दिखायी पड़ा ॥ ५८ ॥ फिर ब्रह्माजी जब चारों ओर देखने लगे, तब पहले दिशाएँ और उसके बाद तुरंत ही उनके सामने वृन्दावन दिखायी पड़ा । वृन्दावन सबके लिये एक-सा प्यारा है । जिधर देखिये, उधर ही जीवोंको जीवन देनेवाले फल और फूलोंसे लदे हुए, हरे-हरे पत्तोंसे लहलहाते हुए वृक्षोंकी पाँतें शोभा पा रही हैं ॥ ५९ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण की लीलाभूमि होनेके कारण वृन्दावन- धाममें क्रोध, तृष्णा आदि दोष प्रवेश नहीं कर सकते और वहाँ स्वभावसे ही परस्पर दुस्त्यज वैर रखनेवाले मनुष्य और पशु-पक्षी भी प्रेमी मित्रोंके समान हिल-मिलकर एक साथ रहते हैं ॥ ६० ॥ ब्रह्माजीने वृन्दावनका दर्शन करनेके बाद देखा कि अद्वितीय परब्रह्म गोपवंशके बालकका-सा नाट्य कर रहा है । एक होनेपर भी उसके सखा हैं, अनन्त होनेपर भी वह इधर-उधर घूम रहा है और उसका ज्ञान अगाध होनेपर भी वह अपने ग्वालबाल और बछड़ोंको ढूँढ़ रहा है । ब्रह्माजीने देखा कि जैसे भगवान्‌ श्रीकृष्ण पहले अपने हाथमें दही-भातका कौर लिये उन्हें ढूँढ़ रहे थे, वैसे ही अब भी अकेले ही उनकी खोजमें लगे हैं ॥ ६१ ॥ भगवान्‌ को देखते ही ब्रह्माजी अपने वाहन हंसपरसे कूद पड़े और सोनेके समान चमकते हुए अपने शरीरसे पृथ्वीपर दण्डकी भाँति गिर पड़े । उन्होंने अपने चारों मुकुटोंके अग्रभागसे भगवान्‌ के चरण-कमलोंका स्पर्श करके नमस्कार किया और आनन्दके आँसुओंकी धारासे उन्हें नहला दिया ॥ ६२ ॥ वे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी पहले देखी हुई महिमाका बार-बार स्मरण करते, उनके चरणोंपर गिरते और उठ-उठकर फिर-फिर गिर पड़ते । इसी प्रकार बहुत देरतक वे भगवान्‌के चरणोंमें ही पड़े रहे ॥ ६३ ॥ फिर धीरे-धीरे उठे और अपने नेत्रोंके आँसू पोंछे । प्रेम और मुक्तिके एकमात्र उद्गम भगवान्‌ को देखकर उनका सिर झुक गया । वे काँपने लगे । अञ्जलि बाँधकर बड़ी नम्रता और एकाग्रताके साथ गद्गद वाणीसे वे भगवान्‌की स्तुति करने लगे ॥ ६४ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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