॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
ब्रह्माजी
के द्वारा भगवान् की स्तुति
श्रीब्रह्मोवाच
।
नौमीड्य
तेऽभ्रवपुषे तडिदम्बराय
गुञ्जावतंसपरिपिच्छलसन्मुखाय
।
वन्यस्रजे
कवलवेत्रविषाणवेणु
लक्ष्मश्रिये
मृदुपदे पशुपाङ्गजाय ॥ १ ॥
अस्यापि
देव वपुषो मदनुग्रहस्य
स्वेच्छामयस्य
न तु भूतमयस्य कोऽपि ।
नेशे
महि त्ववसितुं मनसाऽऽन्तरेण
साक्षात्तवैव
किमुतात्मसुखानुभूतेः ॥ २ ॥
ब्रह्माजीने
स्तुति की—प्रभो ! एकमात्र आप ही स्तुति करनेयोग्य हैं । मैं आपके चरणोंमें नमस्कार
करता हूँ । आपका यह शरीर वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल है, इसपर
स्थिर बिजली के समान झिलमिल-झिलमिल करता हुआ पीताम्बर शोभा पाता है, आपके गलेमें घुँघची की माला, कानोंमें मकराकृति
कुण्डल तथा सिरपर मोरपंखोंका मुकुट है, इन सबकी कान्ति से
आपके मुखपर अनोखी छटा छिटक रही है । वक्ष:स्थलपर लटकती हुई वनमाला और नन्हीं-सी
हथेली पर दही-भात का कौर । बगल में बेंत और सिंगी तथा कमर की फेंट में आपकी पहचान
बताने वाली बाँसुरी शोभा पा रही है । आपके कमल-से सुकोमल परम सुकुमार चरण और यह
गोपाल-बालक का मधुर वेष । (मैं और कुछ नहीं जानता; बस,
मैं तो इन्हीं चरणों पर निछावर हूँ) ॥ १ ॥ स्वयंप्रकाश परमात्मन् !
आपका यह श्रीविग्रह भक्तजनों की लालसा-अभिलाषा पूर्ण करनेवाला है । यह आपकी
चिन्मयी इच्छा का मूर्तिमान् स्वरूप मुझपर आपका साक्षात् कृपा-प्रसाद है । मुझे
अनुगृहीत करने के लिये ही आपने इसे प्रकट किया है । कौन कहता है कि यह पञ्चभूतों की
रचना है ! प्रभो ! यह तो अप्राकृत शुद्ध सत्त्वमय है । मैं या और कोई समाधि लगाकर
भी आपके इस सच्चिदानन्द-विग्रह की महिमा नहीं जान सकता । फिर आत्मानन्दानुभवस्वरूप
साक्षात् आपकी ही महिमाको तो कोई एकाग्रमनसे भी कैसे जान सकता है ॥ २ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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