॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
ब्रह्माजी
के द्वारा भगवान् की स्तुति
ज्ञाने
प्रयासमुदपास्य नमन्त एव ।
जीवन्ति
सन्मुखरितां भवदीयवार्ताम् ।
स्थाने
स्थिताः श्रुतिगतां तनुवाङ्मनोभिः ।
ये
प्रायशोऽजित जितोऽप्यसि तैस्त्रिलोक्याम् ॥ ३ ॥
श्रेयःसृतिं
भक्तिमुदस्य ते विभो ।
क्लिश्यन्ति
ये केवलबोधलब्धये ।
तेषामसौ
क्लेशल एव शिष्यते ।
नान्यद्
यथा स्थूलतुषावघातिनाम् ॥ ४ ॥
प्रभो
! जो लोग ज्ञान के लिये प्रयत्न न करके अपने स्थान में ही स्थित रहकर केवल सत्सङ्ग
करते हैं और आपके प्रेमी संत पुरुषों के द्वारा गायी हुई आपकी लीला-कथा का, जो उन लोगों के पास रहने से अपने-आप सुनने को मिलती है, शरीर, वाणी और मनसे विनयावनत होकर सेवन करते हैं—यहाँतक कि उसे ही अपना जीवन बना लेते हैं, उसके बिना
जी ही नहीं सकते—प्रभो यद्यपि आपपर त्रिलोकी में कोई कभी
विजय नहीं प्राप्त कर सकता, फिर भी वे आपपर विजय प्राप्त कर
लेते हैं, आप उनके प्रेमके अधीन हो जाते हैं ॥ ३ ॥ भगवन् !
आपकी भक्ति सब प्रकारके कल्याणका मूलस्रोत—उद्गम है । जो लोग
उसे छोडक़र केवल ज्ञानकी प्राप्तिके लिये श्रम उठाते और दु:ख भोगते हैं, उनको बस, क्लेश-ही-क्लेश हाथ लगता है, और कुछ नहीं—जैसे थोथी भूसी कूटनेवाले को केवल श्रम
ही मिलता है, चावल नहीं ॥ ४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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