॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)
ब्रह्माजी
का मोह और उसका नाश
तावत्सर्वे
वत्सपालाः पश्यतोऽजस्य तत्क्षणात् ।
व्यदृश्यन्त
घनश्यामाः पीतकौशेयवाससः ॥ ४६ ॥
चतुर्भुजाः
शङ्खचक्र गदाराजीवपाणयः ।
किरीटिनः
कुण्डलिनो हारिणो वनमालिनः ॥ ४७ ॥
श्रीवत्साङ्गददोरत्न
कम्बुकङ्कणपाणयः ।
नूपुरैः
कटकैर्भाताः कटिसूत्राङ्गुलीयकैः ॥ ४८ ॥
आङ्घ्रिमस्तकमापूर्णाः
तुलसीनवदामभिः ।
कोमलैः
सर्वगात्रेषु भूरिपुण्यवदर्पितैः ॥ ४९ ॥
चन्द्रिकाविशदस्मेरैः
सारुणापाङ्गवीक्षितैः ।
स्वकार्थानामिव
रजः सत्त्वाभ्यां स्रष्टृपालकाः ॥ ५० ॥
आत्मादिस्तम्बपर्यन्तैः
मूर्तिमद्भिः चराचरैः ।
नृत्यगीताद्यनेकार्हैः
पृथक् पृथक् उपासिताः ॥ ५१ ॥
अणिमाद्यैर्महिमभिः
अजाद्याभिर्विभूतिभिः ।
चतुर्विंशतिभिस्तत्त्वैः
परीता महदादिभिः ॥ ५२ ॥
कालस्वभावसंस्कार
कामकर्मगुणादिभिः ।
स्वमहिध्वस्तमहिभिः
मूर्तिमद्भिः उपासिताः ॥ ५३ ॥
सत्यज्ञानानन्तानन्द
मात्रैकरसमूर्तयः ।
अस्पृष्टभूरिमाहात्म्या
अपि ह्युपनिषद्दृशाम् ॥ ५४ ॥
एवं
सकृद् ददर्शाजः परब्रह्मात्मनोऽखिलान् ।
यस्य
भासा सर्वमिदं विभाति सचराचरम् ॥ ५५ ॥
ब्रह्माजी
विचार कर ही रहे थे कि उनके देखते-देखते उसी क्षण सभी ग्वालबाल और बछड़े
श्रीकृष्णके रूपमें दिखायी पडऩे लगे । सब-के-सब सजल जलधरके समान श्यामवर्ण, पीताम्बर- धारी, शङ्ख, चक्र,
गदा और पद्मसे युक्त—चतुर्भुज । सबके सिरपर
मुकुट, कानोंमें कुण्डल और कण्ठोंमें मनोहर हार तथा वनमालाएँ
शोभायमान हो रही थीं ॥ ४६-४७ ॥ उनके वक्ष:स्थलपर सुवर्णकी सुनहली रेखा—श्रीवत्स, बाहुओंमें बाजूबंद, कलाइयोंमें
शङ्खाकार रत्नोंसे जड़े कंगन, चरणों में नूपुर और कड़े,
कमर में करधनी तथा अँगुलियोंमें अँगूठियाँ जगमगा रही थीं ॥ ४८ ॥ वे
नखसे शिखतक समस्त अङ्गों में कोमल और नूतन तुलसीकी मालाएँ, जो
उन्हें बड़े भाग्यशाली भक्तोंने पहनायी थीं, धारण किये हुए
थे ॥ ४९ ॥ उनकी मुसकान चाँदनीके समान उज्ज्वल थी और रतनारे नेत्रों की कटाक्षपूर्ण
चितवन बड़ी ही मधुर थी । ऐसा जान पड़ता था मानो वे इन दोनों के द्वारा सत्त्वगुण
और रजोगुण को स्वीकार करके भक्तजनों के हृदयमें शुद्ध लालसाएँ जगाकर उनको पूर्ण कर
रहे हैं ॥ ५० ॥ ब्रह्माजी ने यह भी देखा कि उन्हींके-जैसे दूसरे ब्रह्मा से लेकर
तृण तक सभी चराचर जीव मूर्तिमान् होकर नाचते-गाते अनेक प्रकार की पूजा-सामग्री से
अलग-अलग भगवान् के उन सब रूपों की उपासना कर रहे हैं ॥ ५१ ॥ उन्हें अलग-अलग
अणिमा-महिमा आदि सिद्धियाँ, माया-विद्या आदि विभूतियाँ और
महत्तत्त्व आदि चौबीसों तत्त्व चारों ओर से घेरे हुए हैं ॥ ५२ ॥ प्रकृति में क्षोभ
उत्पन्न करनेवाला काल, उसके परिणाम का कारण स्वभाव, वासनाओं को जगाने वाला संस्कार, कामनाएँ, कर्म, विषय और फल—सभी
मूर्तिमान् होकर भगवान् के प्रत्येक रूपकी उपासना कर रहे हैं । भगवान् की सत्ता
और महत्ताके सामने उन सभी की सत्ता और महत्ता अपना अस्तित्व खो बैठी थी ॥ ५३ ॥
ब्रह्माजीने यह भी देखा कि वे सभी भूत, भविष्यत् और वर्तमान
काल के द्वारा सीमित नहीं हैं, त्रिकालाबाधित सत्य हैं। वे
सब-के-सब स्वयंप्रकाश और केवल अनन्त आनन्दस्वरूप हैं। उनमें जड़ता अथवा चेतनताका
भेदभाव नहीं है। वे सब-के-सब एकरस हैं । यहाँतक कि उपनिषद्दर्शी तत्त्वज्ञानियों की
दृष्टि भी उनकी अनन्त महिमा का स्पर्श नहीं कर सकती ॥ ५४ ॥ इस प्रकार ब्रह्माजी ने
एक साथ ही देखा कि वे सब-के-सब उन परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्णके ही स्वरूप हैं,
जिनके प्रकाशसे यह सारा चराचर जगत् प्रकाशित हो रहा है ॥ ५५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें