॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)
ब्रह्माजी
का मोह और उसका नाश
तावदेत्यात्मभूरात्म-मानेन
त्रुट्यनेहसा ।
पुरोवदाब्दं
क्रीडन्तं ददृशे सकलं हरिम् ॥ ४० ॥
यावन्तो
गोकुले बालाः सवत्साः सर्व एव हि ।
मायाशये
शयाना मे नाद्यापि पुनरुत्थिताः ॥ ४१ ॥
इत
एतेऽत्र कुत्रत्या मन्माया मोहितेतरे ।
तावन्त
एव तत्राब्दं क्रीडन्तो विष्णुना समम् ॥ ४२ ॥
एवमेतेषु
भेदेषु चिरं ध्यात्वा स आत्मभूः ।
सत्याः
के कतरे नेति ज्ञातुं नेष्टे कथञ्चन ॥ ४३ ॥
एवं
सम्मोहयन् विष्णुं विमोहं विश्वमोहनम् ।
स्वयैव
माययाजोऽपि स्वयमेव विमोहितः ॥ ४४ ॥
तम्यां
तमोवन्नैहारं खद्योतार्चिरिवाहनि ।
महतीतरमायैश्यं
निहन्त्यात्मनि युञ्जतः ॥ ४५ ॥
परीक्षित्
! तबतक ब्रह्माजी ब्रह्मलोक से व्रजमें लौट आये। उनके कालमान से अबतक केवल एक
त्रुटि (जितनी देरमें तीखी सूई से कमल की पँखुड़ी छिदे) समय व्यतीत हुआ था।
उन्होंने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण ग्वालबाल और बछड़ों के साथ एक सालसे पहलेकी
भाँति ही क्रीडा कर रहे हैं ॥ ४० ॥ वे सोचने लगे—‘गोकुल में
जितने भी ग्वालबाल और बछड़े थे, वे तो मेरी मायामयी शय्यापर
सो रहे हैं—उनको तो मैंने अपनी मायासे अचेत कर दिया था;
वे तबसे अबतक सचेत नहीं हुए ॥ ४१ ॥ तब मेरी मायासे मोहित ग्वालबाल
और बछड़ोंके अतिरिक्त ये उतने ही दूसरे बालक तथा बछड़े कहाँसे आ गये, जो एक सालसे भगवान्के साथ खेल रहे हैं ? ॥ ४२ ॥
ब्रह्माजी ने दोनों स्थानों पर दोनों को देखा और बहुत देरतक ध्यान करके अपनी
ज्ञानदृष्टि से उनका रहस्य खोलना चाहा; परंतु इन दोनों में
कौन-से पहलेके ग्वालबाल हैं और कौन-से पीछे बना लिये गये हैं, इनमेंसे कौन सच्चे हैं और कौन बनावटी—यह बात वे किसी
प्रकार न समझ सके ॥ ४३ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण की माया में तो सभी मुग्ध हो रहे हैं,
परंतु कोई भी माया-मोह भगवान्का स्पर्श नहीं कर सकता। ब्रह्माजी
उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णको अपनी मायासे मोहित करने चले थे। किन्तु उनको मोहित
करना तो दूर रहा, वे अजन्मा होनेपर भी अपनी ही मायासे
अपने-आप मोहित हो गये ॥ ४४ ॥ जिस प्रकार रातके घोर अन्धकारमें कुहरेके अन्धकारका
और दिनके प्रकाशमें जुगनूके प्रकाशका पता नहीं चलता, वैसे ही
जब क्षुद्र पुरुष महापुरुषोंपर अपनी मायाका प्रयोग करते हैं, तब वह उनका तो कुछ बिगाड़ नहीं सकती, अपना ही प्रभाव
खो बैठती है ॥ ४५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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