॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)
ब्रह्माजी
का मोह और उसका नाश
व्रजस्य
रामः प्रेमर्धेः वीक्ष्यौत्कण्ठ्यमनुक्षणम् ।
मुक्तस्तनेष्वपत्येषु
अहेतुविद् अचिन्तयत् ॥ ३५ ॥
किमेतद्
अद्भुतमिव वासुदेवेऽखिलात्मनि ।
व्रजस्य
सात्मनस्तोकेषु अपूर्वं प्रेम वर्धते ॥ ३६ ॥
केयं
वा कुत आयाता दैवी वा नार्युतासुरी ।
प्रायो
मायास्तु मे भर्तुः नान्या मेऽपि विमोहिनी ॥ ३७ ॥
इति
सञ्चिन्त्य दाशार्हो वत्सान् सवयसानपि ।
सर्वानाचष्ट
वैकुण्ठं चक्षुषा वयुनेन सः ॥ ३८ ॥
नैते
सुरेशा ऋषयो न चैते
त्वमेव
भासीश भिदाश्रयेऽपि ।
सर्वं
पृथक्त्वं निगमात् कथं वदे-
त्युक्तेन
वृत्तं प्रभुणा बलोऽवैत् ॥ ३९ ॥
बलरामजीने
देखा कि व्रजवासी गोप,
गौएँ और ग्वालिनोंकी उन सन्तानोंपर भी, जिन्होंने
अपनी माका दूध पीना छोड़ दिया है, क्षण-प्रतिक्षण
प्रेम-सम्पत्ति और उसके अनुरूप उत्कण्ठा बढ़ती ही जा रही है। तब वे विचारमें पड़
गये, क्योंकि उन्हें इसका कारण मालूम न था ॥ ३५ ॥ ‘यह कैसी विचित्र बात है ! सर्वात्मा श्रीकृष्णमें व्रजवासियोंका और मेरा
जैसा अपूर्व स्नेह है, वैसा ही इन बालकों और बछड़ोंपर भी
बढ़ता जा रहा है ॥ ३६ ॥ यह कौन-सी माया है ? कहाँसे आयी है ?
यह किसी देवता की है, मनुष्य की है अथवा
असुरों की ? परंतु क्या ऐसा भी सम्भव है ? नहीं- नहीं, यह तो मेरे प्रभुकी ही माया है। और
किसीकी मायामें ऐसी सामथ्र्य नहीं, जो मुझे भी मोहित कर ले’
॥ ३७ ॥ बलरामजीने ऐसा विचार करके ज्ञानदृष्टिसे देखा, तो उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि इन सब बछड़ों और ग्वालबालोंके रूपमें केवल
श्रीकृष्ण-ही-श्रीकृष्ण हैं ॥ ३८ ॥ तब उन्होंने श्रीकृष्णसे कहा—‘भगवन् ! ये ग्वालबाल और बछड़े न देवता हैं और न तो कोई ऋषि ही। इन
भिन्न-भिन्न रूपोंका आश्रय लेनेपर भी आप अकेले ही इन रूपोंमें प्रकाशित हो रहे
हैं। कृपया स्पष्ट करके थोड़ेमें ही यह बतला दीजिये कि आप इस प्रकार बछड़े बालक,
सिंगी, रस्सी आदिके रूपमें अलग-अलग क्यों
प्रकाशित हो रहे हैं ?’ तब भगवान् ने ब्रह्माकी सारी करतूत
सुनायी और बलरामजीने सब बातें जान लीं ॥ ३९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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