सोमवार, 8 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

ब्रह्माजी का मोह और उसका नाश

एकदा चारयन् वत्सान् सरामो वनमाविशत् ।
पञ्चषासु त्रियामासु हायनापूरणीष्वजः ॥ २८ ॥
ततो विदूराच्चरतो गावो वत्सानुपव्रजम् ।
गोवर्धनाद्रिशिरसि चरन्त्यो ददृशुस्तृणम् ॥ २९ ॥
दृष्ट्वाथ तत्स्नेहवशोऽस्मृतात्मा
स गोव्रजोऽत्यात्मप दुर्गमार्गः ।
द्विपात्ककुद्‍ग्रीव उदास्यपुच्छो
अगाद्धुङ्‌कृतैरास्रुपया जवेन ॥ ३० ॥
समेत्य गावोऽधो वत्सान् वत्सवत्योऽप्यपाययन् ।
गिलन्त्य इव चाङ्‌गानि लिहन्त्यः स्वौधसं पयः ॥ ३१ ॥
गोपाः तद् रोधनायास मौघ्यलज्जोरुमन्युना ।
दुर्गाध्वकृच्छ्रतोऽभ्येत्य गोवत्सैर्ददृशुः सुतान् ॥ ३२ ॥
तदीक्षणोत्प्रेमरसाप्लुताशया
जातानुरागा गतमन्यवोऽर्भकान् ।
उदुह्य दोर्भिः परिरभ्य मूर्धनि
घ्राणैरवापुः परमां मुदं ते ॥ ३३ ॥
ततः प्रवयसो गोपाः तोकाश्लेषसुनिर्वृताः ।
कृच्छ्रात् शनैरपगताः तदनुस्मृत्युदश्रवः ॥ ३४ ॥

जब एक वर्ष पूरा होनेमें पाँच-छ: रातें शेष थीं, तब एक दिन भगवान्‌ श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ बछड़ोंको चराते हुए वनमें गये ॥ २८ ॥ उस समय गौएँ गोवर्धनकी चोटीपर घास चर रही थीं । वहाँसे उन्होंने व्रजके पास ही घास चरते हुए बहुत दूर अपने बछड़ोंको देखा ॥ २९ ॥ बछड़ोंको देखते ही गौओंका वात्सल्य-स्नेह उमड़ आया । वे अपने-आपकी सुध-बुध खो बैठीं और ग्वालोंके रोकनेकी कुछ भी परवा न कर जिस मार्गसे वे न जा सकते थे, उस मार्गसे हुंकार करती हुई बड़े वेगसे दौड़ पड़ीं। उस समय उनके थनोंसे दूध बहता जाता था और उनकी गरदनें सिकुडक़र डीलसे मिल गयी थीं। वे पूँछ तथा सिर उठाकर इतने वेगसे दौड़ रही थीं कि मालूम होता था मानो उनके दो ही पैर हैं ॥ ३० ॥ जिन गौओंके और भी बछड़े हो चुके थे, वे भी गोवर्धनके नीचे अपने पहले बछड़ोंके पास दौड़ आयीं और उन्हें स्नेहवश अपने आप बहता हुआ दूध पिलाने लगीं। उस समय वे अपने बच्चोंका एक-एक अङ्ग ऐसे चावसे चाट रही थीं, मानो उन्हें अपने पेटमें रख लेंगी ॥ ३१ ॥ गोपोंने उन्हें रोकनेका बहुत कुछ प्रयत्न किया, परंतु उनका सारा प्रयत्न व्यर्थ रहा। उन्हें अपनी विफलतापर कुछ लज्जा और गायोंपर बड़ा क्रोध आया। जब वे बहुत कष्ट उठाकर उस कठिन मार्गसे उस स्थानपर पहुँचे, तब उन्होंने बछड़ोंके साथ अपने बालकोंको भी देखा ॥ ३२ ॥ अपने बच्चोंको देखते ही उनका हृदय प्रेमरससे सराबोर हो गया। बालकोंके प्रति अनुरागकी बाढ़ आ गयी, उनका क्रोध न जाने कहाँ हवा हो गया। उन्होंने अपने-अपने बालकोंको गोदमें उठाकर हृदयसे लगा लिया और उनका मस्तक सूँघकर अत्यन्त आनन्दित हुए ॥ ३३ ॥ बूढ़े गोपों को अपने बालकोंके आलिङ्गन से परम आनन्द प्राप्त हुआ। वे निहाल हो गये। फिर बड़े कष्टसे उन्हें छोडक़र धीरे-धीरे वहाँसे गये। जानेके बाद भी बालकों के और उनके आलिङ्गन के स्मरण से उनके नेत्रोंसे प्रेमके आँसू बहते रहे ॥ ३४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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