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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
ब्रह्माजी
का मोह और उसका नाश
तन्मातरो
वेणुरवत्वरोत्थिता
उत्थाप्य
दोर्भिः परिरभ्य निर्भरम् ।
स्नेहस्नुतस्तन्यपयःसुधासवं
मत्वा
परं ब्रह्म सुतानपाययन् ॥ २२ ॥
ततो
नृपोन्मर्दनमज्जलेपन
अलङ्कार
रक्षा तिलकाशनादिभिः ।
संलालितः
स्वाचरितैः प्रहर्षयन्
सायं
गतो यामयमेन माधवः ॥ २३ ॥
गावस्ततो
गोष्ठमुपेत्य सत्वरं
हुङ्कारघोषैः
परिहूतसङ्गतान् ।
स्वकान्
स्वकान् वत्सतरानपाययन्
मुहुर्लिहन्त्यः
स्रवदौधसं पयः ॥ २४ ॥
गोगोपीनां
मातृतास्मिन् सर्वा स्नेहर्धिकां विना ।
पुरोवदास्वपि
हरेः तोकता मायया विना ॥ २५ ॥
व्रजौकसां
स्वतोकेषु स्नेहवल्ल्याब्दमन्वहम् ।
शनैर्निःसीम
ववृधे यथा कृष्णे त्वपूर्ववत् ॥ २६ ॥
इत्थं
आत्माऽऽत्मनाऽऽत्मानं वत्सपालमिषेण सः ।
पालयन्
वत्सपो वर्षं चिक्रीडे वनगोष्ठयोः ॥ २७ ॥
ग्वालबालों
की माताएँ बाँसुरी की तान सुनते ही जल्दी से दौड़ आयीं । ग्वालबाल बने हुए
परब्रह्म श्रीकृष्णको अपने बच्चे समझकर हाथोंसे उठाकर उन्होंने जोरसे हृदयसे लगा
लिया । वे अपने स्तनोंसे वात्सल्य-स्नेहकी अधिकताके कारण सुधासे भी मधुर और आसव से
भी मादक चुचुआता हुआ दूध उन्हें पिलाने लगीं ॥ २२ ॥ परीक्षित् ! इसी प्रकार
प्रतिदिन सन्ध्यासमय भगवान् श्रीकृष्ण उन ग्वालबालोंके रूपमें वनसे लौट आते और
अपनी बालसुलभ लीलाओंसे माताओंको आनन्दित करते । वे माताएँ उन्हें उबटन लगातीं, नहलातीं चन्दनका लेप करतीं और अच्छे-अच्छे वस्त्रों तथा गहनोंसे सजातीं ।
दोनों भौंहोंके बीचमें डीठ से बचानेके लिये काजल का डिठौना लगा देतीं तथा भोजन
करातीं और तरह-तरहसे बड़े लाड़-प्यारसे उनका लालन-पालन करतीं ॥ २३ ॥ ग्वालिनोंके
समान गौएँ भी जब जंगलोंमेंसे चरकर जल्दी-जल्दी लौटतीं और उनकी हुंकार सुनकर उनके
प्यारे बछड़े दौडक़र उनके पास आ जाते, तब वे बार-बार उन्हें
अपनी जीभसे चाटतीं और अपना दूध पिलातीं । उस समय स्नेहकी अधिकताके कारण उनके
थनोंसे स्वयं ही दूधकी धारा बहने लगती ॥ २४ ॥ इन गायों और ग्वालिनोंका मातृभाव
पहले जैसा ही ऐश्वर्यज्ञानरहित और विशुद्ध था । हाँ, अपने
असली पुत्रोंकी अपेक्षा इस समय उनका स्नेह अवश्य अधिक था । इसी प्रकार भगवान् भी
उनके पहले पुत्रोंके समान ही पुत्रभाव दिखला रहे थे, परंतु
भगवान् में उन बालकोंके जैसा मोहका भाव नहीं था कि मैं इनका पुत्र हूँ ॥ २५ ॥
अपने-अपने बालकोंके प्रति व्रजवासियोंकी स्नेह-लता दिन-प्रतिदिन एक वर्षतक
धीरे-धीरे बढ़ती ही गयी । यहाँतक कि पहले श्रीकृष्णमें उनका जैसा असीम और अपूर्व
प्रेम था, वैसा ही अपने इन बालकोंके प्रति भी हो गया ॥ २६ ॥
इस प्रकार सर्वात्मा श्रीकृष्ण बछड़े और ग्वालबालोंके बहाने गोपाल बनकर अपने
बालकरूपसे वत्सरूपका पालन करते हुए एक वर्षतक वन और गोष्ठमें क्रीड़ा करते रहे ॥
२७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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