॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
ब्रह्माजी
का मोह और उसका नाश
ततो
वत्सान् अदृष्ट्वैत्य पुलिनेऽपि च वत्सपान् ।
उभौ
अपि वने कृष्णो विचिकाय समन्ततः ॥ १६ ॥
क्वाप्यदृष्ट्वान्तर्विपिने
वत्सान् पालांश्च विश्ववित् ।
सर्वं
विधिकृतं कृष्णः सहसावजगाम ह ॥ १७ ॥
ततः
कृष्णो मुदं कर्तुं तन्मातॄणां च कस्य च ।
उभयायितमात्मानं
चक्रे विश्वकृदीश्वरः ॥ १८ ॥
यावद्
वत्सपवत्सकाल्पकवपुः
र्यावत्
कराङ्घ्र्यादिकं ।
यावद्
यष्टिविषाणवेणुदलशिग्
यावद्
विभूषाम्बरम् ।
यावत्
शीलगुणाभिधाकृतिवयो
यावद्
विहारादिकं ।
सर्वं
विष्णुमयं गिरोऽङ्गवदजः
सर्वस्वरूपो
बभौ ॥ १९ ॥
स्वयमात्मात्मगोवत्सान
प्रतिवार्यात्मवत्सपैः ।
क्रीडन्
आत्मविहारैश्च सर्वात्मा प्राविशद् व्रजम् ॥ २० ॥
तत्तद्
वत्सान् पृथङ्नीत्वा तत्तद्गोष्ठे निवेश्य सः ।
तत्तद्
आत्माभवद् राजन् तत्तत्सद्म प्रविष्टवान् ॥ २१ ॥
भगवान्
श्रीकृष्ण बछड़े न मिलनेपर यमुनाजीके पुलिन पर लौट आये, परंतु यहाँ क्या देखते हैं कि ग्वालबाल भी नहीं हैं । तब उन्होंने वनमें
घूम-घूमकर चारों ओर उन्हें ढूँढ़ा ॥ १६ ॥ परंतु जब ग्वालबाल और बछड़े उन्हें कहीं
न मिले, तब वे तुरंत जान गये कि यह सब ब्रह्माकी करतूत है ।
वे तो सारे विश्वके एकमात्र ज्ञाता हैं ॥ १७ ॥ अब भगवान् श्रीकृष्ण ने बछड़ों और
ग्वालबालों की माताओं को तथा ब्रह्माजी को भी आनन्दित करने के लिये अपने-आप को ही
बछड़ों और ग्वालबालों—दोनों के रूपमें बना लिया[*] । क्योंकि
वे ही तो सम्पूर्ण विश्व के कर्ता सर्वशक्तिमान् ईश्वर हैं ॥ १८ ॥ परीक्षित् ! वे
बालक और बछड़े संख्या में जितने थे, जितने छोटे-छोटे उनके
शरीर थे, उनके हाथ-पैर जैसे-जैसे थे, उनके
पास जितनी और जैसी छडिय़ाँ, सिंगी, बाँसुरी,
पत्ते और छीके थे, जैसे और जितने वस्त्राभूषण
थे, उनके शील, स्वभाव, गुण, नाम, रूप और अवस्थाएँ
जैसी थीं, जिस प्रकार वे खाते-पीते और चलते थे, ठीक वैसे ही और उतने ही रूपोंमें सर्वस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हो
गये । उस समय ‘यह सम्पूर्ण जगत् विष्णुरूप है’—यह वेदवाणी मानो मूर्तिमती होकर प्रकट हो गयी ॥ १९ ॥ सर्वात्मा भगवान्
स्वयं ही बछड़े बन गये और स्वयं ही ग्वालबाल । अपने आत्मस्वरूप बछड़ों को अपने
आत्मस्वरूप ग्वालबालों के द्वारा घेरकर अपने ही साथ अनेकों प्रकार के खेल खेलते
हुए उन्होंने व्रज में प्रवेश किया ॥ २० ॥ परीक्षित् ! जिस ग्वालबाल के जो बछड़े
थे, उन्हें उसी ग्वालबाल के रूप से अलग-अलग ले जाकर उसकी
बाखल में घुसा दिया और विभिन्न बालकों के रूपमें उनके भिन्न-भिन्न घरों में चले
गये ॥ २१ ॥
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[*]
भगवान् सर्वसमर्थ हैं । वे ब्रह्माजी के चुराये हुए ग्वालबाल और बछड़ों को ला सकते
थे । किन्तु इससे ब्रह्मा जी का मोह दूर न होता और वे भगवान् की उस दिव्य मायाका
ऐश्वर्य न देख सकते,
जिसने उनके विश्वकर्ता होने के अभिमान को नष्ट किया । इसीलिये भगवान्
उन्हीं ग्वालबाल और बछड़ों को न लाकर स्वयं ही वैसे ही एवं उतने ही ग्वालबाल और
बछड़े बन गये ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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