॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
ब्रह्माजी
का मोह और उसका नाश
भारतैवं
वत्सपेषु भुञ्जानेष्वच्युतात्मसु ।
वत्सास्त्वन्तर्वने
दूरं विविशुस्तृणलोभिताः ॥ १२ ॥
तान्
दृष्ट्वा भयसंत्रस्न् ऊचे कृष्णोऽस्य भीभयम् ।
मित्राण्याशान्मा
विरमत् इहानेष्ये वत्सकानहम् ॥ ॥
इत्युक्त्वाद्रिदरीकुञ्ज
गह्वरेष्वात्मवत्सकान् ।
विचिन्वन्
भगवान् कृष्णः सपाणिकवलो ययौ ॥ १४ ॥
अम्भोजन्मजनिस्तदन्तरगतो
मायार्भकस्येशितुः ।
द्रष्टुं
मञ्जु महित्वमन्यदपि तद्वत्सानितो वत्सपान् ।
नीत्वान्यत्र
कुरूद्वहान्तरदधात् खेऽवस्थितो यः पुरा ।
दृष्ट्वाघासुरमोक्षणं
प्रभवतः प्राप्तः परं विस्मयम् ॥ १५ ॥
भरतवंशशिरोमणे
! इस प्रकार भोजन करते-करते ग्वालबाल भगवान् की इस रसमयी लीलामें तन्मय हो गये ।
उसी समय उनके बछड़े हरी-हरी घासके लालचसे घोर जंगलमें बड़ी दूर निकल गये ॥ १२ ॥ जब
ग्वालबालों का ध्यान उस ओर गया, तब तो वे भयभीत हो गये । उस समय
अपने भक्तों के भय को भगा देनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘मेरे प्यारे मित्रो ! तुमलोग भोजन करना बंद मत करो । मैं अभी बछड़ों को
लिये आता हूँ’ ॥ १३ ॥ ग्वालबालों से इस प्रकार कहकर भगवान्
श्रीकृष्ण हाथमें दही-भात का कौर लिये ही पहाड़ों, गुफाओं,
कुञ्जों एवं अन्यान्य भयङ्कर स्थानोंमें अपने तथा साथियोंके
बछड़ोंको ढूँढऩे चल दिये ॥ १४ ॥ परीक्षित् ! ब्रह्माजी पहलेसे ही आकाशमें उपस्थित
थे । प्रभुके प्रभाव से अघासुरका मोक्ष देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने
सोचा कि लीलासे मनुष्य-बालक बने हुए भगवान् श्रीकृष्णकी कोई और मनोहर महिमामयी
लीला देखनी चाहिये । ऐसा सोचकर उन्होंने पहले तो बछड़ोंको और भगवान् श्रीकृष्णके
चले जानेपर ग्वालबालोंको भी, अन्यत्र ले जाकर रख दिया और
स्वयं अन्तर्धान हो गये । अन्तत: वे जड़ कमलकी ही तो सन्तान हैं ॥ १५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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