॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
ब्रह्माजी
का मोह और उसका नाश
तथेति
पाययित्वार्भा वत्सानारुध्य शाद्वले ।
मुक्त्वा
शिक्यानि बुभुजुः समं भगवता मुदा ॥ ७ ॥
कृष्णस्य
विष्वक् पुरुराजिमण्डलैः
अभ्याननाः
फुल्लदृशो व्रजार्भकाः ।
सहोपविष्टा
विपिने विरेजुः
छदा
यथाम्भोरुहकर्णिकायाः ॥ ८ ॥
केचित्
पुष्पैर्दलैः केचित् पल्लवैः अङ्कुरैः फलैः ।
शिग्भिः
त्वग्भिः दृषद्भिश्च बुभुजुः कृतभाजनाः ॥ ९ ॥
सर्वे
मिथो दर्शयन्तः स्वस्वभोज्यरुचिं पृथक् ।
हसन्तो
हासयन्तश्च अभ्यवजह्रुः सहेश्वराः ॥ १० ॥
बिभ्रद्
वेणुं जठरपटयोः श्रृङ्गवेत्रे च कक्षे ।
वामे
पाणौ मसृणकवलं तत्फलान्यङ्गुलीषु ।
तिष्ठन्
मध्ये स्वपरिसुहृदो हासयन् नर्मभिः स्वैः
स्वर्गे
लोके मिषति बुभुजे यज्ञभुग् बालकेलिः ॥ ११ ॥
ग्वालबालों
ने एक स्वरसे कहा—‘ठीक है, ठीक है !’ उन्होंने
बछड़ों को पानी पिलाकर हरी-हरी घास में छोड़ दिया और अपने-अपने छीके खोल-खोलकर
भगवान्के साथ बड़े आनन्दसे भोजन करने लगे ॥ ७ ॥ सबके बीच में भगवान् श्रीकृष्ण
बैठ गये । उनके चारों ओर ग्वालबालों ने बहुत-सी मण्डलाकार पंक्तियाँ बना लीं और
एक-से-एक सटकर बैठ गये । सबके मुँह श्रीकृष्ण की ओर थे और सबकी आँखें आनन्दसे खिल
रही थीं । वन-भोजनके समय श्रीकृष्ण के साथ बैठे हुए ग्वालबाल ऐसे शोभायमान हो रहे
थे, मानो कमलकी कर्णिका के चारों ओर उसकी छोटी-बड़ी
पँखुडिय़ाँ सुशोभित हो रही हों ॥ ८ ॥ कोई पुष्प तो कोई पत्ते और कोई-कोई पल्लव,
अंकुर, फल, छीके,
छाल एवं पत्थरोंके पात्र बनाकर भोजन करने लगे ॥ ९ ॥ भगवान्
श्रीकृष्ण और ग्वालबाल सभी परस्पर अपनी-अपनी भिन्न-भिन्न रुचिका प्रदर्शन करते ।
कोई किसीको हँसा देता, तो कोई स्वयं ही हँसते-हँसते लोट-पोट
हो जाता । इस प्रकार वे सब भोजन करने लगे ॥ १० ॥ (उस समय श्रीकृष्णकी छटा सबसे
निराली थी ।) उन्होंने मुरलीको तो कमरकी फेंटमें आगेकी ओर खोंस लिया था । सिंगी और
बेंत बगलमें दबा लिये थे । बायें हाथमें बड़ा ही मधुर घृतमिश्रित दही- भातका ग्रास
था और अँगुलियोंमें अदरक, नीबू आदिके अचार-मुरब्बे दबा रखे
थे । ग्वालबाल उनको चारों ओरसे घेरकर बैठे हुए थे और वे स्वयं सबके बीचमें बैठकर
अपनी विनोदभरी बातोंसे अपने साथी ग्वालबालोंको हँसाते जा रहे थे । जो समस्त
यज्ञोंके एकमात्र भोक्ता हैं, वे ही भगवान् ग्वालबालोंके
साथ बैठकर इस प्रकार बाल-लीला करते हुए भोजन कर रहे थे और स्वर्गके देवता
आश्चर्यचकित होकर यह अद्भुत लीला देख रहे थे ॥ ११ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें