शुक्रवार, 5 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

ब्रह्माजी का मोह और उसका नाश

श्रीशुक उवाच ।
साधु पृष्टं महाभाग त्वया भागवतोत्तम ।
यन्नूतनयसीशस्य श्रृण्वन्नपि कथां मुहुः ॥ १ ॥
सतामयं सारभृतां निसर्गो
यदर्थवाणी श्रुतिचेतसामपि ।
प्रतिक्षणं नव्यवदच्युतस्य यत्
स्त्रिया विटानामिव साधु वार्ता ॥ २ ॥
श्रृणुष्वावहितो राजन् अपि गुह्यं वदामि ते ।
ब्रूयुः स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरवो गुह्यमप्युत ॥ ३ ॥
तथा अघवदनान्मृत्यो रक्षित्वा वत्सपालकान् ।
सरित्पुलिनमानीय भगवान् इदमब्रवीत् ॥ ४ ॥
अहोऽतिरम्यं पुलिनं वयस्याः
स्वकेलिसम्पन् मृदुलाच्छबालुकम् ।
स्फुटत्सरोगन्ध हृतालिपत्रिक
ध्वनिप्रतिध्वानलसद् द्रुमाकुलम् ॥ ५ ॥
अत्र भोक्तव्यमस्माभिः दिवारूढं क्षुधार्दिताः ।
वत्साः समीपेऽपः पीत्वा चरन्तु शनकैस्तृणम् ॥ ६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! तुम बड़े भाग्यवान् हो । भगवान्‌ के प्रेमी भक्तों में तुम्हारा स्थान श्रेष्ठ है । तभी तो तुमने इतना सुन्दर प्रश्न किया है । यों तो तुम्हें बार-बार भगवान् की लीला-कथाएँ सुनने को मिलती हैं, फिर भी तुम उनके सम्बन्ध में प्रश्न करके उन्हें और भी सरसऔर भी नूतन बना देते हो ॥ १ ॥ रसिक संतोंकी वाणी, कान और हृदय भगवान्‌ की लीलाके गान, श्रवण और चिन्तन के लिये ही होते हैंउनका यह स्वभाव ही होता है कि वे क्षण- प्रतिक्षण भगवान्‌ की लीलाओं को अपूर्व रसमयी और नित्य-नूतन अनुभव करते रहेंठीक वैसे ही, जैसे लम्पट पुरुषों को स्त्रियों की चर्चामें नया-नया रस जान पड़ता है ॥ २ ॥ परीक्षित्‌ ! तुम एकाग्र चित्त से श्रवण करो । यद्यपि भगवान्‌ की यह लीला अत्यन्त रहस्यमयी है, फिर भी मैं तुम्हें सुनाता हूँ । क्योंकि दयालु आचार्यगण अपने प्रेमी शिष्य को गुप्त रहस्य भी बतला दिया करते हैं ॥ ३ ॥ यह तो मैं तुमसे कह ही चुका हूँ कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने अपने साथी ग्वालबालों को मृत्युरूप अघासुर के मुँह से बचा लिया । इसके बाद वे उन्हें यमुनाके पुलिनपर ले आये और उनसे कहने लगे ॥ ४ ॥ मेरे प्यारे मित्रो ! यमुनाजी का यह पुलिन अत्यन्त रमणीय है । देखो तो सही, यहाँ की बालू कितनी कोमल और स्वच्छ है । हमलोगोंके लिये खेलनेकी तो यहाँ सभी सामग्री विद्यमान है । देखो, एक ओर रंग-बिरंगे कमल खिले हुए हैं और उनकी सुगन्ध से खिंच कर भौंरे गुंजार कर रहे हैं; तो दूसरी ओर सुन्दर-सुन्दर पक्षी बड़ा ही मधुर कलरव कर रहे हैं, जिसकी प्रतिध्वनि से सुशोभित वृक्ष इस स्थान की शोभा बढ़ा रहे हैं ॥ ५ ॥ अब हम लोगों को यहाँ भोजन कर लेना चाहिये । क्योंकि दिन बहुत चढ़ आया है और हमलोग भूख से पीडि़त हो रहे हैं । बछड़े पानी पीकर समीप ही धीरे-धीरे हरी-हरी घास चरते रहें॥ ६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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