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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
ब्रह्माजी
का मोह और उसका नाश
श्रीशुक
उवाच ।
साधु
पृष्टं महाभाग त्वया भागवतोत्तम ।
यन्नूतनयसीशस्य
श्रृण्वन्नपि कथां मुहुः ॥ १ ॥
सतामयं
सारभृतां निसर्गो
यदर्थवाणी
श्रुतिचेतसामपि ।
प्रतिक्षणं
नव्यवदच्युतस्य यत्
स्त्रिया
विटानामिव साधु वार्ता ॥ २ ॥
श्रृणुष्वावहितो
राजन् अपि गुह्यं वदामि ते ।
ब्रूयुः
स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरवो गुह्यमप्युत ॥ ३ ॥
तथा
अघवदनान्मृत्यो रक्षित्वा वत्सपालकान् ।
सरित्पुलिनमानीय
भगवान् इदमब्रवीत् ॥ ४ ॥
अहोऽतिरम्यं
पुलिनं वयस्याः
स्वकेलिसम्पन्
मृदुलाच्छबालुकम् ।
स्फुटत्सरोगन्ध
हृतालिपत्रिक
ध्वनिप्रतिध्वानलसद्
द्रुमाकुलम् ॥ ५ ॥
अत्र
भोक्तव्यमस्माभिः दिवारूढं क्षुधार्दिताः ।
वत्साः
समीपेऽपः पीत्वा चरन्तु शनकैस्तृणम् ॥ ६ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! तुम बड़े भाग्यवान् हो । भगवान् के प्रेमी भक्तों में
तुम्हारा स्थान श्रेष्ठ है । तभी तो तुमने इतना सुन्दर प्रश्न किया है । यों तो तुम्हें
बार-बार भगवान् की लीला-कथाएँ सुनने को मिलती हैं, फिर भी तुम उनके सम्बन्ध में
प्रश्न करके उन्हें और भी सरस—और भी नूतन बना देते हो ॥ १ ॥
रसिक संतोंकी वाणी, कान और हृदय भगवान् की लीलाके गान,
श्रवण और चिन्तन के लिये ही होते हैं—उनका यह
स्वभाव ही होता है कि वे क्षण- प्रतिक्षण भगवान् की लीलाओं को अपूर्व रसमयी और
नित्य-नूतन अनुभव करते रहें—ठीक वैसे ही, जैसे लम्पट पुरुषों को स्त्रियों की चर्चामें नया-नया रस जान पड़ता है ॥ २ ॥
परीक्षित् ! तुम एकाग्र चित्त से श्रवण करो । यद्यपि भगवान् की यह लीला अत्यन्त
रहस्यमयी है, फिर भी मैं तुम्हें सुनाता हूँ । क्योंकि दयालु
आचार्यगण अपने प्रेमी शिष्य को गुप्त रहस्य भी बतला दिया करते हैं ॥ ३ ॥ यह तो मैं
तुमसे कह ही चुका हूँ कि भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने साथी ग्वालबालों को मृत्युरूप
अघासुर के मुँह से बचा लिया । इसके बाद वे उन्हें यमुनाके पुलिनपर ले आये और उनसे
कहने लगे ॥ ४ ॥ ‘मेरे प्यारे मित्रो ! यमुनाजी का यह पुलिन
अत्यन्त रमणीय है । देखो तो सही, यहाँ की बालू कितनी कोमल और
स्वच्छ है । हमलोगोंके लिये खेलनेकी तो यहाँ सभी सामग्री विद्यमान है । देखो,
एक ओर रंग-बिरंगे कमल खिले हुए हैं और उनकी सुगन्ध से खिंच कर
भौंरे गुंजार कर रहे हैं; तो दूसरी ओर सुन्दर-सुन्दर पक्षी
बड़ा ही मधुर कलरव कर रहे हैं, जिसकी प्रतिध्वनि से सुशोभित
वृक्ष इस स्थान की शोभा बढ़ा रहे हैं ॥ ५ ॥ अब हम लोगों को यहाँ भोजन कर लेना चाहिये
। क्योंकि दिन बहुत चढ़ आया है और हमलोग भूख से पीडि़त हो रहे हैं । बछड़े पानी
पीकर समीप ही धीरे-धीरे हरी-हरी घास चरते रहें’ ॥ ६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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