॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
अघासुर
का उद्धार
श्रीसूत
उवाच ।
इत्थं
द्विजा यादवदेवदत्तः
श्रुत्वा
स्वरातुश्चरितं विचित्रम् ।
पप्रच्छ
भूयोऽपि तदेव पुण्यं
वैयासकिं
यन्निगृहीतचेताः ॥ ४० ॥
श्रीराजोवाच
।
ब्रह्मन्
कालान्तरकृतं तत्कालीनं कथं भवेत् ।
यत्कौमारे
हरिकृतं जगुः पौगण्डकेऽर्भकाः ॥ ४१ ॥
तद्
ब्रूहि मे महायोगिन् परं कौतूहलं गुरो ।
नूनमेतद्धरेरेव
माया भवति नान्यथा ॥ ४२ ॥
वयं
धन्यतमा लोके गुरोऽपि क्षत्रबन्धवः ।
यत्
पिबामो मुहुस्त्वत्तः पुण्यं कृष्णकथामृतम् ॥ ४३ ॥
श्रीसूत
उवाच ।
इत्थं
स्म पृष्टः स तु बादरायणिः
तत्स्मारितानन्तहृताखिलेन्द्रियः
।
कृच्छ्रात्
पुनर्लब्धबहिर्दृशिः शनैः
प्रत्याह
तं भागवतोत्तमोत्तम ॥ ४४ ॥
सूतजी
कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण ने ही राजा परीक्षित् को
जीवन-दान दिया था । उन्होंने जब अपने रक्षक एवं जीवनसर्वस्वका यह विचित्र चरित्र
सुना, तब उन्होंने फिर श्रीशुकदेवजी महाराजसे उन्हींकी पवित्र
लीलाके सम्बन्धमें प्रश्न किया । इसका कारण यह था कि भगवान्की अमृतमयी लीलाने
परीक्षित्के चित्तको अपने वशमें कर रखा था ॥ ४० ॥
राजा
परीक्षित्ने पूछा—भगवन् ! आपने कहा था कि ग्वालबालों ने भगवान् की की हुई पाँचवें वर्षकी
लीला व्रजमें छठे वर्ष में जाकर कही । अब इस विषय में आप कृपा करके यह बतलाइये कि
एक समयकी लीला दूसरे समय में वर्तमानकालीन कैसे हो सकती है ? ॥ ४१ ॥ महायोगी गुरुदेव ! मुझे इस आश्चर्यपूर्ण रहस्य को जानने के लिये
बड़ा कौतूहल हो रहा है । आप कृपा करके बतलाइये । अवश्य ही इसमें भगवान्
श्रीकृष्णकी विचित्र घटनाओं को घटित करनेवाली माया का कुछ-न-कुछ काम होगा ।
क्योंकि और किसी प्रकार ऐसा नहीं हो सकता ॥ ४२ ॥ गुरुदेव ! यद्यपि क्षत्रियोचित
धर्म ब्राह्मण-सेवासे विमुख होनेके कारण मैं अपराधी नाममात्रका क्षत्रिय हूँ,
तथापि हमारा अहोभाग्य है कि हम आपके मुखारविन्दसे निरन्तर झरते हुए
परम पवित्र मधुमय श्रीकृष्णलीलामृत का बार-बार पान कर रहे हैं ॥ ४३ ॥
सूतजी
कहते हैं—भगवान् के परम प्रेमी भक्तों में श्रेष्ठ शौनकजी ! जब राजा परीक्षित् ने
इस प्रकार प्रश्न किया, तब श्रीशुकदेव जी को भगवान् की वह
लीला स्मरण हो आयी और उनकी समस्त इन्द्रियाँ तथा अन्त:करण विवश होकर भगवान् की
नित्यलीला में खिंच गये । कुछ समय के बाद धीरे-धीरे श्रम और कष्ट से उन्हें
बाह्यज्ञान हुआ । तब वे परीक्षित् से भगवान् की लीला का वर्णन करने लगे ॥४४ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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