गुरुवार, 4 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

अघासुर का उद्धार

तच्छ्रुत्वा भगवान् कृष्णस्तु अव्ययः सार्भवत्सकम् ।
चूर्णीचिकीर्षोरात्मानं तरसा ववृधे गले ॥ ३० ॥
ततोऽतिकायस्य निरुद्धमार्गिणो
ह्युद्‍गीर्णदृष्टेः भ्रमतस्त्वितस्ततः ।
पूर्णोऽन्तरंगे पवनो निरुद्धो
मूर्धन् विनिष्पाट्य विनिर्गतो बहिः ॥ ३१ ॥
तेनैव सर्वेषु बहिर्गतेषु
प्राणेषु वत्सान् सुहृदः परेतान् ।
दृष्ट्या स्वयोत्थाप्य तदन्वितः पुनः
वक्त्रान् मुकुन्दो भगवान् विनिर्ययौ ॥ ३२ ॥
पीनाहिभोगोत्थितमद्‍भुतं महत्
ज्योतिः स्वधाम्ना ज्वलयद् दिशो दश ।
प्रतीक्ष्य खेऽवस्थितमीशनिर्गमं
विवेश तस्मिन् मिषतां दिवौकसाम् ॥ ३३ ॥
ततोऽतिहृष्टाः स्वकृतोऽकृतार्हणं
पुष्पैः सुगा अप्सरसश्च नर्तनैः ।
गीतैः सुरा वाद्यधराश्च वाद्यकैः
स्तवैश्च विप्रा जयनिःस्वनैर्गणाः ॥ ३४ ॥
तदद्‍भुतस्तोत्रसुवाद्यगीतिका
जयादिनैकोत्सव मङ्‌गलस्वनान् ।
श्रुत्वा स्वधाम्नोऽन्त्यज आगतोऽचिराद्
दृष्ट्वा महीशस्य जगाम विस्मयम् ॥ ३५ ॥
राजन् आजगरं चर्म शुष्कं वृन्दावनेऽद्‍भुतम् ।
व्रजौकसां बहुतिथं बभूवाक्रीडगह्वरम् ॥ ३६ ॥
एतत्कौमारजं कर्म हरेरात्माहिमोक्षणम् ।
मृत्योः पौगण्डके बाला दृष्ट्वोचुर्विस्मिता व्रजे ॥ ३७ ॥
नैतद् विचित्रं मनुजार्भमायिनः
परावराणां परमस्य वेधसः ।
अघोऽपि यत्स्पर्शनधौतपातकः
प्रापात्मसाम्यं त्वसतां सुदुर्लभम् ॥ ३८ ॥
सकृद्यदङ्‌गप्रतिमान्तराहिता
मनोमयी भागवतीं ददौ गतिम् ।
स एव नित्यात्मसुखानुभूत्यभि
व्युदस्तमायोऽन्तर्गतो हि किं पुनः ॥ ३९ ॥

अघासुर बछड़ों और ग्वालबालों के सहित भगवान्‌ श्रीकृष्ण को अपनी डाढ़ों से चबाकर चूर-चूर कर डालना चाहता था । परंतु उसी समय अविनाशी श्रीकृष्णने देवताओंकी हाय-हायसुनकर उसके गलेमें अपने शरीरको बड़ी फुर्तीसे बढ़ा लिया ॥ ३० ॥ इसके बाद भगवान्‌ ने अपने शरीरको इतना बड़ा कर लिया कि उसका गला ही रुँध गया । आँखें उलट गयीं । वह व्याकुल होकर बहुत ही छटपटाने लगा । साँस रुककर सारे शरीरमें भर गयी और अन्तमें उसके प्राण ब्रह्मरन्ध्र फोडक़र निकल गये ॥ ३१ ॥ उसी मार्गसे प्राणोंके साथ उसकी सारी इन्द्रियाँ भी शरीरसे बाहर हो गयीं । उसी समय भगवान्‌ मुकुन्दने अपनी अमृतमयी दृष्टिसे मरे हुए बछड़ों और ग्वालबालोंको जिला दिया और उन सबको साथ लेकर वे अघासुरके मुँहसे बाहर निकल आये ॥ ३२ ॥ उस अजगरके स्थूल शरीरसे एक अत्यन्त अद्भुत और महान् ज्योति निकली, उस समय उस ज्योतिके प्रकाशसे दसों दिशाएँ प्रज्वलित हो उठीं । वह थोड़ी देरतक तो आकाशमें स्थित होकर भगवान्‌ के निकलनेकी प्रतीक्षा करती रही । जब वे बाहर निकल आये तब वह सब देवताओंके देखते-देखते उन्हींमें समा गयी ॥ ३३ ॥ उस समय देवताओंने फूल बरसाकर, अप्सराओंने नाचकर, गन्धर्वोंने गाकर, विद्याधरोंने बाजे बजाकर, ब्राह्मणोंने स्तुति-पाठकर और पार्षदोंने जय-जयकारके नारे लगाकर बड़े आनन्दसे भगवान्‌ श्रीकृष्णका अभिनन्दन किया । क्योंकि भगवान्‌ श्रीकृष्णने अघासुरको मारकर उन सबका बहुत बड़ा काम किया था ॥ ३४ ॥ उन अद्भुत स्तुतियों, सुन्दर बाजों, मङ्गलमय गीतों, जय-जयकार और आनन्दोत्सवोंकी मङ्गलध्वनि ब्रह्मलोकके पास पहुँच गयी । जब ब्रह्माजीने वह ध्वनि सुनी, तब वे बहुत ही शीघ्र अपने वाहनपर चढक़र वहाँ आये और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी यह महिमा देखकर आश्चर्य चकित हो गये ॥ ३५ ॥ परीक्षित्‌ ! जब वृन्दावनमें अजगरका वह चाम सूख गया, तब वह व्रजवासियोंके लिये बहुत दिनोंतक खेलनेकी एक अद्भुत गुफा-सी बना रहा ॥ ३६ ॥ यह जो भगवान्‌ने अपने ग्वालबालोंको मृत्युके मुखसे बचाया था और अघासुरको मोक्ष-दान किया था, वह लीला भगवान्‌ने अपनी कुमार अवस्थामें अर्थात् पाँचवें वर्षमें ही की थी । ग्वालबालोंने उसे उसी समय देखा भी था, परंतु पौगण्ड अवस्था अर्थात् छठे वर्षमें अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर व्रजमें उसका वर्णन किया ॥ ३७ ॥ अघासुर मूर्तिमान् अघ (पाप) ही था । भगवान्‌के स्पर्शमात्रसे उसके सारे पाप धुल गये और उसे उस सारूप्य-मुक्तिकी प्राप्ति हुई, जो पापियोंको कभी मिल नहीं सकती । परंतु यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । क्योंकि मनुष्य- बालककी-सी लीला रचनेवाले ये वे ही परमपुरुष परमात्मा हैं, जो व्यक्त-अव्यक्त और कार्य- कारणरूप समस्त जगत्के एकमात्र विधाता हैं ॥ ३८ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णके किसी एक अङ्गकी भावनिर्मित प्रतिमा यदि ध्यानके द्वारा एक बार भी हृदयमें बैठा ली जाय, तो वह सालोक्य, सामीप्य आदि गतिका दान करती है, जो भगवान्‌ के बड़े-बड़े भक्तों को मिलती है । भगवान्‌ आत्मानन्द के नित्य साक्षात्कारस्वरूप हैं । माया उनके पास तक नहीं फटक पाती । वे ही स्वयं अघासुर के शरीर में प्रवेश कर गये । क्या अब भी उसकी सद्गति के विषय में कोई सन्देह है ? ॥ ३९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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