गुरुवार, 4 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

अघासुर का उद्धार

दृष्ट्वा तं तादृशं सर्वे मत्वा वृन्दावनश्रियम् ।
व्यात्ताजगरतुण्डेन ह्युत्प्रेक्षन्ते स्म लीलया ॥ १८ ॥
अहो मित्राणि गदत सत्त्वकूटं पुरः स्थितम् ।
अस्मत्सङ्‌ग्रसनव्यात्त व्यालतुण्डायते न वा ॥ १९ ॥
सत्यमर्ककरारक्तं उत्तराहनुवद्‍घनम् ।
अधराहनुवद् रोधः तत् प्रतिच्छाययारुणम् ॥ २० ॥
प्रतिस्पर्धेते सृक्किभ्यां सव्यासव्ये नगोदरे ।
तुंगशृंगालयोऽप्येताः तद् दंष्ट्राभिश्च पश्यत ॥ २१ ॥
आस्तृतायाम मार्गोऽयं रसनां प्रतिगर्जति ।
एषां अन्तर्गतं ध्वान्तं एतदप्यन्तः आननम् ॥ २२ ॥
दावोष्णखरवातोऽयं श्वासवद्‍भाति पश्यत ।
तद् दग्धसत्त्वदुर्गन्धोऽपि अन्तरामिषगन्धवत् ॥ २३ ॥
अस्मान्किमत्र ग्रसिता निविष्टा-
नयं तथा चेद् बकवद् विनङ्‌क्ष्यति ।
क्षणादनेनेति बकार्युशन्मुखं
वीक्ष्योद्धसन्तः करताडनैर्ययुः ॥ २४ ॥
इत्थं मिथोऽतथ्यं अतज्ज्ञभाषितं
श्रुत्वा विचिन्त्येत्यमृषा मृषायते ।
रक्षो विदित्वाखिल-भूतहृत्स्थितः
स्वानां निरोद्धुं भगवान् मनो दधे ॥ २५ ॥
तावत् प्रविष्टास्तु असुरोदरान्तरं
परं न गीर्णाः शिशवः सवत्साः ।
प्रतीक्षमाणेन बकारिवेशनं
हतस्वकान्तस्मरणेन रक्षसा ॥ २६ ॥
तान् वीक्ष्य कृष्णः सकलाभयप्रदो
ह्यनन्यनाथान् स्वकरादवच्युतान् ।
दीनांश्च मृत्योर्जठराग्निघासान्
घृणार्दितो दिष्टकृतेन विस्मितः ॥ २७ ॥
कृत्यं किमत्रास्य खलस्य जीवनं
न वा अमीषां च सतां विहिंसनम् ।
द्वयं कथं स्यादिति संविचिन्त्य तत्
ज्ञात्वाविशत् तुण्डमशेषदृग्घरिः ॥ २८ ॥
तदा घनच्छदा देवा भयाद् हाहेति चुक्रुशुः ।
जहृषुर्ये च कंसाद्याः कौणपास्त्वघबान्धवाः ॥ २९ ॥

अघासुर का ऐसा रूप देखकर बालकों ने समझा कि यह भी वृन्दावन की कोई शोभा है । वे कौतुकवश खेल-ही-खेल में उत्प्रेक्षा करने लगे कि यह मानो अजगर का खुला हुआ मुँह है ॥ १८ ॥ कोई कहता—‘मित्रो ! भला बतलाओ तो, यह जो हमारे सामने कोई जीव-सा बैठा है, यह हमें निगलने के लिये खुले हुए किसी अजगर के मुँह-जैसा नहीं है ?’ ॥ १९ ॥ दूसरे ने कहा—‘सचमुच सूर्यकी किरणें पडऩेसे ये जो बादल लाल-लाल हो गये हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मानो ठीक-ठीक इसका ऊपरी होठ ही हो । और उन्हीं बादलोंकी परछार्ईंसे यह जो नीचेकी भूमि कुछ लाल-लाल दीख रही है, वही इसका नीचेका होठ जान पड़ता है॥ २० ॥ तीसरे ग्वालबाल ने कहा—‘हाँ, सच तो है । देखो तो सही, क्या ये दायीं और बायीं ओरकी गिरि-कन्दराएँ अजगर के जबड़ों की होड़ नहीं करतीं ? और ये ऊँची-ऊँची शिखर-पंक्तियाँ तो साफ-साफ इसकी दाढ़ें मालूम पड़ती हैं॥ २१ ॥ चौथेने कहा—‘अरे भाई ! यह लंबी-चौड़ी सडक़ तो ठीक अजगरकी जीभ सरीखी मालूम पड़ती है और इन गिरिशृङ्गोंके बीचका अन्धकार तो उसके मुँहके भीतरी भागको भी मात करता है॥ २२ ॥ किसी दूसरे ग्वालबालने कहा—‘देखो, देखो ! ऐसा जान पड़ता है कि कहीं इधर जंगलमें आग लगी है । इसीसे यह गरम और तीखी हवा आ रही है । परंतु अजगरकी साँसके साथ इसका क्या ही मेल बैठ गया है । और उसी आगसे जले हुए प्राणियोंकी दुर्गन्ध ऐसी जान पड़ती है, मानो अजगरके पेटमें मरे हुए जीवोंके मांसकी ही दुर्गन्ध हो॥ २३ ॥ तब उन्हींमेंसे एकने कहा—‘यदि हमलोग इसके मुँहमें घुस जायँ, तो क्या यह हमें निगल जायगा ? अजी ! यह क्या निगलेगा । कहीं ऐसा करने की ढिठाई की तो एक क्षण में यह भी बकासुर के समान नष्ट हो जायगा । हमारा यह कन्हैया इसको छोड़ेगा थोड़े ही ।इस प्रकार कहते हुए वे ग्वालबाल बकासुरको मारनेवाले श्रीकृष्णका सुन्दर मुख देखते और ताली पीट-पीटकर हँसते हुए अघासुरके मुँहमें घुस गये ॥ २४ ॥ उन अनजान बच्चोंकी आपसमें की हुई भ्रमपूर्ण बातें सुनकर भगवान्‌ श्रीकृष्णने सोचा कि अरे, इन्हें तो सच्चा सर्प भी झूठा प्रतीत होता है !परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण जान गये कि यह राक्षस है । भला, उनसे क्या छिपा रहता ? वे तो समस्त प्राणियोंके हृदयमें ही निवास करते हैं । अब उन्होंने यह निश्चय किया कि अपने सखा ग्वालबालोंको उसके मुँहमें जानेसे बचा लें ॥ २५ ॥ भगवान्‌ इस प्रकार सोच ही रहे थे कि सब-के-सब ग्वालबाल बछड़ोंके साथ उस असुरके पेटमें चले गये । परंतु अघासुरने अभी उन्हें निगला नहीं, इसका कारण यह था कि अघासुर अपने भाई बकासुर और बहिन पूतनाके वधकी याद करके इस बातकी बाट देख रहा था कि उनको मारनेवाले श्रीकृष्ण मुँहमें आ जायँ, तब सबको एक साथ ही निगल जाऊँ ॥ २६ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण सबको अभय देनेवाले हैं । जब उन्होंने देखा कि ये बेचारे ग्वालबालजिनका एकमात्र रक्षक मैं ही हूँमेरे हाथसे निकल गये और जैसे कोई तिनका उडक़र आगमें गिर पड़े, वैसे ही अपने-आप मृत्युरूप अघासुर की जठराग्नि  के ग्रास बन गये, तब दैवकी इस विचित्र लीलापर भगवान्‌को बड़ा विस्मय हुआ और उनका हृदय दयासे द्रवित हो गया ॥ २७ ॥ वे सोचने लगे कि अब मुझे क्या करना चाहिये ? ऐसा कौन-सा उपाय है, जिससे इस दुष्टकी मृत्यु भी हो जाय और इन संत-स्वभाव भोले-भाले बालकोंकी हत्या भी न हो ? ये दोनों काम कैसे हो सकते हैं ?’ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण भूत, भविष्य, वर्तमानसबको प्रत्यक्ष देखते रहते हैं । उनके लिये यह उपाय जानना कोई कठिन न था । वे अपना कर्तव्य निश्चय करके स्वयं उसके मुँहमें घुस गये ॥ २८ ॥ उस समय बादलोंमें छिपे हुए देवता भयवश हाय-हायपुकार उठे और अघासुर के हितैषी कंस आदि राक्षस हर्ष प्रकट करने लगे ॥ २९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





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