॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
अघासुर
का उद्धार
अथ
अघनामाभ्यपतन् महासुरः
तेषां
सुखक्रीडनवीक्षणाक्षमः ।
नित्यं
यदन्तर्निजजीवितेप्सुभिः
पीतामृतैः
अप्यमरैः प्रतीक्ष्यते ॥ १३ ॥
दृष्ट्वार्भकान्
कृष्णमुखान् अघासुरः ।
कंसानुशिष्टः
स बकीबकानुजः ।
अयं
तु मे सोदरनाशकृत्तयोरः
द्वयोर्ममैनं
सबलं हनिष्ये ॥ १४ ॥
एते
यदा मत्सुहृदोस्तिलापः
कृतास्तदा
नष्टसमा व्रजौकसः ।
प्राणे
गते वर्ष्मसु का नु चिन्ता
प्रजासवः
प्राणभृतो हि ये ते ॥ १५ ॥
इति
व्यवस्याजगरं बृहद् वपुः
स
योजनायाम महाद्रिपीवरम् ।
धृत्वाद्भुतं
व्यात्तगुहाननं तदा
पथि
व्यशेत ग्रसनाशया खलः ॥ १६ ॥
धराधरोष्ठो
जलदोत्तरोष्ठो
दर्याननान्तो
गिरिशृङ्गदंष्ट्रः ।
ध्वान्तान्तरास्यो
वितताध्वजिह्वः
परुषानिलश्वासदवेक्षणोष्णः
॥ १७ ॥
परीक्षित्
! इसी समय अघासुर नामका महान् दैत्य आ धमका । उससे श्रीकृष्ण और ग्वालबालों की
सुखमयी क्रीडा देखी न गयी । उसके हृदय में जलन होने लगी । वह इतना भयङ्कर था कि
अमृतपान करके अमर हुए देवता भी उससे अपने जीवन की रक्षा करनेके लिये चिन्तित रहा
करते थे और इस बातकी बाट देखते रहते थे कि किसी प्रकारसे इसकी मृत्युका अवसर आ जाय
॥ १३ ॥ अघासुर पूतना और बकासुरका छोटा भाई तथा कंसका भेजा हुआ था । वह श्रीकृष्ण, श्रीदामा आदि ग्वालबालोंको देखकर मन-ही-मन सोचने लगा कि ‘यही मेरे सगे भाई और बहिनको मारनेवाला है । इसलिये आज मैं इन ग्वालबालोंके
साथ इसे मार डालूँगा ॥ १४ ॥ जब ये सब मरकर मेरे उन दोनों भाई-बहिनोंके मृततर्पणकी
तिलाञ्जलि बन जायँगे, तब व्रजवासी अपने-आप मरे-जैसे हो
जायँगे । सन्तान ही प्राणियोंके प्राण हैं । जब प्राण ही न रहेंगे, तब शरीर कैसे रहेगा ? इसकी मृत्युसे व्रजवासी अपने
आप मर जायँगे’ ॥ १५ ॥ ऐसा निश्चय करके वह दुष्ट दैत्य अजगरका
रूप धारण कर मार्गमें लेट गया । उसका वह अजगर-शरीर एक योजन लंबे बड़े पर्वतके समान
विशाल एवं मोटा था । वह बहुत ही अद्भुत था । उसकी नीयत सब बालकोंको निगल जानेकी थी,
इसलिये उसने गुफाके समान अपना बहुत बड़ा मुँह फाड़ रखा था ॥ १६ ॥
उसका नीचेका होठ पृथ्वीसे और ऊपरका होठ बादलोंसे लग रहा था । उसके जबड़े
कन्दराओंके समान थे और दाढ़ें पर्वतके शिखर-सी जान पड़ती थीं । मुँहके भीतर घोर
अन्धकार था । जीभ एक चौड़ी लाल सडक़-सी दीखती थी । साँस आँधी के समान थी और आँखें
दावानल के समान दहक रही थीं ॥ १७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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