रविवार, 12 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

नन्दबाबा से गोपों की श्रीकृष्ण के प्रभाव के विषय में बातचीत

 

श्रीशुक उवाच -

एवंविधानि कर्माणि गोपाः कृष्णस्य वीक्ष्य ते ।

अतद्वीर्यविदः प्रोचुः समभ्येत्य सुविस्मिताः ॥ १ ॥

बालकस्य यदेतानि कर्माणि अति अद्‍भुतानि वै ।

कथमर्हत्यसौ जन्म ग्राम्येष्वात्मजुगुप्सितम् ॥ २ ॥

यः सप्तहायनो बालः करेणैकेन लीलया ।

कथं बिभ्रद् गिरिवरं पुष्करं गजराडिव ॥ ३ ॥

तोकेनामीलिताक्षेण पूतनाया महौजसः ।

पीतः स्तनः सह प्राणैः कालेनेव वयस्तनोः ॥ ४ ॥

हिन्वतोऽधः शयानस्य मास्यस्य चरणावुदक् ।

अनोऽपतद् विपर्यस्तं रुदतः प्रपदाहतम् ॥ ५ ॥

एकहायन आसीनो ह्रियमाणो विहायसा ।

दैत्येन यस्तृणावर्त महन् कण्ठग्रहातुरम् ॥ ६ ॥

क्वचिद् हैयङ्‌गवस्तैन्ये मात्रा बद्ध उलूखले ।

गच्छन् अर्जुनयोर्मध्ये बाहुभ्यां तावपातयत् ॥ ७ ॥

वने सञ्चारयन् वत्सान् सरामो बालकैर्वृतः ।

हन्तुकामं बकं दोर्भ्यां मुखतोऽरिमपाटयत् ॥ ८ ॥

वत्सेषु वत्सरूपेण प्रविशन्तं जिघांसया ।

हत्वा न्यपातयत्तेन कपित्थानि च लीलया ॥ ९ ॥

हत्वा रासभदैतेयं तद्‍बन्धूंश्च बलान्वितः ।

चक्रे तालवनं क्षेमं परिपक्व फलान्वितम् ॥ १० ॥

प्रलम्बं घातयित्वोग्रं बलेन बलशालिना ।

अमोचयद् व्रजपशून् गोपांश्चारण्यवह्नितः ॥ ११ ॥

आशीविषतमाहीन्द्रं दमित्वा विमदं ह्रदात् ।

प्रसह्योद्वास्य यमुनां चक्रेऽसौ निर्विषोदकाम् ॥ १२ ॥

दुस्त्यजश्चानुरागोऽस्मिन् सर्वेषां नो व्रजौकसाम् ।

नन्द ते तनयेऽस्मासु तस्याप्यौत्पत्तिकः कथम् ॥ १३ ॥

क्व सप्तहायनो बालः क्व महाद्रिविधारणम् ।

ततो नो जायते शङ्‌का व्रजनाथ तवात्मजे ॥ १४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! व्रजके गोप भगवान्‌ श्रीकृष्णके ऐसे अलौकिक कर्म देखकर बड़े आश्चर्यमें पड़ गये। उन्हें भगवान्‌ की अनन्त शक्तिका तो पता था नहीं, वे इकट्ठे होकर आपसमें इस प्रकार कहने लगे॥ १ ॥ इस बालकके ये कर्म बड़े अलौकिक हैं। इसका हमारे-जैसे गँवार ग्रामीणों में जन्म लेना तो इसके लिये बड़ी निन्दाकी बात है। यह भला कैसे उचित हो सकता है ॥ २ ॥ जैसे गजराज कोई कमल उखाडक़र उसे ऊपर उठा ले और धारण करे, वैसे ही इस नन्हें-से सात वर्षके बालकने एक ही हाथसे गिरिराज गोवद्र्धनको उखाड़ लिया और खेल- खेलमें सात दिनोंतक उठाये रखा ॥ ३ ॥ यह साधारण मनुष्यके लिये भला, कैसे सम्भव है ? जब यह नन्हा-सा बच्चा था, उस समय बड़ी भयङ्कर राक्षसी पूतना आयी और इसने आँख बंद किये- किये ही उसका स्तन तो पिया ही, प्राण भी पी डालेठीक वैसे ही, जैसे काल शरीरकी आयुको निगल जाता है ॥ ४ ॥ जिस समय यह केवल तीन महीनेका था और छकड़ेके नीचे सोकर रो रहा था, उस समय रोते-रोते इसने ऐसा पाँव उछाला कि उसकी ठोकरसे वह बड़ा भारी छकड़ा उलटकर गिर ही पड़ा ॥ ५ ॥ उस समय तो यह एक ही वर्षका था, जब दैत्य बवंडरके रूपमें इसे बैठे-बैठे आकाशमें उड़ा ले गया था। तुम सब जानते ही हो कि इसने उस तृणावर्त दैत्यको गला घोंटकर मार डाला ॥ ६ ॥ उस दिनकी बात तो सभी जानते हैं कि माखनचोरी करनेपर यशोदारानीने इसे ऊखलसे बाँध दिया था। यह घुटनोंके बल बकैंया खींचते-खींचते उन दोनों विशाल अर्जुन वृक्षोंके बीचमेंसे निकल गया और उन्हें उखाड़ ही डाला ॥ ७ ॥ जब यह ग्वालबाल और बलरामजीके साथ बछड़ोंको चरानेके लिये वनमें गया हुआ था, उस समय इसको मार डालनेके लिये एक दैत्य बगुलेके रूपमें आया और इसने दोनों हाथोंसे उसके दोनों ठोर पकडक़र उसे तिनकेकी तरह चीर डाला ॥ ८ ॥ जिस समय इसको मार डालनेकी इच्छासे एक दैत्य बछड़ेके रूपमें बछड़ों के झुंडमें घुस गया था, उस समय इसने उस दैत्यको खेल-ही-खेलमें मार डाला और उसे कैथके पेड़ोंपर पटककर उन पेड़ोंको भी गिरा दिया ॥ ९ ॥ इसने बलरामजी के साथ मिलकर गधे के रूपमें रहनेवाले धेनुकासुर तथा उसके भाई-बन्धुओं को मार डाला और पके हुए फलोंसे पूर्ण तालवन को सबके लिये उपयोगी और मङ्गलमय बना दिया ॥ १० ॥ इसीने बलशाली बलरामजीके द्वारा क्रूर प्रलम्बासुरको मरवा डाला तथा दावानलसे गौओं और ग्वालबालोंको उबार लिया ॥ ११ ॥ यमुनाजलमें रहनेवाला कालियनाग कितना विषैला था ? परंतु इसने उसका भी मान मर्दन कर उसे बलपूर्वक दहसे निकाल दिया और यमुनाजीका जल सदाके लिये विषरहितअमृतमय बना दिया ॥ १२ ॥ नन्दजी ! हम यह भी देखते हैं कि तुम्हारे इस साँवले बालकपर हम सभी व्रजवासियोंका अनन्त प्रेम है और इसका भी हमपर स्वाभाविक ही स्नेह है। क्या आप बतला सकते हैं कि इसका क्या कारण है ॥ १३ ॥ भला, कहाँ तो यह सात वर्षका नन्हा-सा बालक और कहाँ इतने बड़े गिरिराजको सात दिनोंतक उठाये रखना ! व्रजराज ! इसीसे तो तुम्हारे पुत्रके सम्बन्धमें हमें बड़ी शङ्का हो रही है ॥ १४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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