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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)
महारास
यह
बात पहले ही समझ लेनी चाहिये कि भगवान् का शरीर जीव-शरीरकी भाँति जड नहीं होता।
जडकी सत्ता केवल जीवकी दृष्टिमें होती है, भगवान् की
दृष्टिमें नहीं। यह देह है और यह देही है, इस प्रकारका
भेदभाव केवल प्रकृतिके राज्यमें होता है। अप्राकृत लोकमें—जहाँकी
प्रकृति भी चिन्मय है—सब कुछ चिन्मय ही होता है; वहाँ अचित् की प्रतीति तो केवल चिद्विलास अथवा भगवान् की लीलाकी सिद्धिके
लिये होती है। इसलिये स्थूलतामें—या यों कहिये कि जडराज्यमें
रहनेवाला मस्तिष्क जब भगवान्की अप्राकृत लीलाओंके सम्बन्धमें विचार करने लगता है,
तब वह अपनी पूर्व वासनाओंके अनुसार जडराज्यकी धारणाओं, कल्पनाओं और क्रियाओंका ही आरोप उस दिव्य राज्यके विषयमें भी करता है,
इसलिये दिव्यलीलाके रहस्यको समझनेमें असमर्थ हो जाता है। यह रास
वस्तुत: परम उज्ज्वल रसका एक दिव्य प्रकाश है। जड जगत्की बात तो दूर रही, ज्ञानरूप या विज्ञानरूप जगत्में भी यह प्रकट नहीं होता। अधिक क्या,
साक्षात् चिन्मय तत्त्वमें भी इस परम दिव्य उज्ज्वल रसका लेशाभास
नहीं देखा जाता। इस परम रसकी स्फूर्ति तो परम भावमयी श्रीकृष्णप्रेमस्वरूपा
गोपीजनोंके मधुर हृदयमें ही होती है। इस रासलीलाके यथार्थस्वरूप और परम माधुर्यका
आस्वाद उन्हींको मिलता है, दूसरे लोग तो इसकी कल्पना भी नहीं
कर सकते।
भगवान्
के समान ही गोपियाँ भी परमरसमयी और सच्चिदानन्दमयी ही हैं। साधनाकी दृष्टिसे भी
उन्होंने न केवल जड शरीरका ही त्याग कर दिया है, बल्कि सूक्ष्म
शरीरसे प्राप्त होनेवाले स्वर्ग, कैवल्यसे अनुभव होनेवाले
मोक्ष—और तो क्या, जडताकी दृष्टिका ही
त्याग कर दिया है। उनकी दृष्टिमें केवल चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण हैं, उनके हृदयमें श्रीकृष्णको तृप्त करनेवाला प्रेमामृत है। उनकी इस अलौकिक
स्थितिमें स्थूलशरीर, उसकी स्मृति और उसके सम्बन्धसे
होनेवाले अङ्ग- सङ्गकी कल्पना किसी भी प्रकार नहीं की जा सकती। ऐसी कल्पना तो केवल
देहात्मबुद्धिसे जकड़े हुए जीवोंकी ही होती है। जिन्होंने गोपियोंको पहचाना है,
उन्होंने गोपियोंकी चरणधूलिका स्पर्श प्राप्त करके अपनी कृतकृत्यता
चाही है। ब्रह्मा, शङ्कर, उद्धव और
अर्जुनने गोपियोंकी उपासना करके भगवान्के चरणोंमें वैसे प्रेमका वरदान प्राप्त
किया है या प्राप्त करनेकी अभिलाषा की है। उन गोपियोंके दिव्य भावको साधारण
स्त्री-पुरुषके भाव-जैसा मानना गोपियोंके प्रति, भगवान् के
प्रति और वास्तवमें सत्यके प्रति महान् अन्याय एवं अपराध है। इस अपराधसे बचनेके
लिये भगवान् की दिव्य लीलाओंपर विचार करते समय उनकी अप्राकृत दिव्यताका स्मरण
रखना परमावश्यक है।
भगवान्
का चिदानन्दघन शरीर दिव्य है। वह अजन्मा और अविनाशी है, हानोपादानरहित है। वह नित्य सनातन शुद्ध भगवत्स्वरूप ही है। इसी प्रकार
गोपियाँ दिव्य जगत् की भगवान् की स्वरूपभूता अन्तरङ्गशक्तियाँ हैं। इन दोनोंका
सम्बन्ध भी दिव्य ही है। यह उच्चतम भावराज्यकी लीला स्थूल शरीर और स्थूल मनसे परे
है। आवरण-भङ्गके अनन्तर अर्थात् चीरहरण करके जब भगवान् स्वीकृति देते हैं,
तब इसमें प्रवेश होता है।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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