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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)
महारास
प्राकृत
देहका निर्माण होता है स्थूल, सूक्ष्म और कारण—इन तीन देहोंके संयोगसे। जबतक ‘कारण शरीर’ रहता है, तबतक इस प्राकृत देहसे जीवको छुटकारा नहीं
मिलता। ‘कारण शरीर’ कहते हैं पूर्वकृत
कर्मोंके उन संस्कारोंको, जो देह-निर्माणमें कारण होते हैं।
इस ‘कारण शरीर’ के आधारपर जीवको
बार-बार जन्म-मृत्युके चक्करमें पडऩा होता है और यह चक्र जीवकी मुक्ति न होनेतक
अथवा ‘कारण’ का सर्वथा अभाव न होनेतक
चलता ही रहता है। इसी कर्मबन्धनके कारण पाञ्चभौतिक स्थूलशरीर मिलता है—जो रक्त, मांस, अस्थि आदिसे
भरा और चमड़ेसे ढका होता है। प्रकृतिके राज्यमें जितने शरीर होते हैं, सभी वस्तुत: योनि और बिन्दुके संयोगसे ही बनते हैं; फिर
चाहे कोई कामजनित निकृष्ट मैथुनसे उत्पन्न हो या ऊध्र्वरेता महापुरुषके संकल्पसे,
बिन्दुके अधोगामी होनेपर कर्तव्यरूप श्रेष्ठ मैथुनसे हो, अथवा बिना ही मैथुनके नाभि, हृदय, कण्ठ, कर्ण, नेत्र, सिर, मस्तक आदिके स्पर्शसे, बिना
ही स्पर्शके केवल दृष्टिमात्रसे अथवा बिना देखे केवल संकल्पसे ही उत्पन्न हो । ये
मैथुनी-अमैथुनी (अथवा कभी-कभी स्त्री या पुरुष-शरीरके बिना भी उत्पन्न होनेवाले)
सभी शरीर हैं योनि और बिन्दुके संयोगजनित ही। ये सभी प्राकृत शरीर हैं। इसी प्रकार
योगियोंके द्वारा निर्मित ‘निर्माणकाय’ यद्यपि अपेक्षाकृत शुद्ध हैं, परंतु वे भी हैं
प्राकृत ही। पितर या देवोंके दिव्य कहलानेवाले शरीर भी प्राकृत ही हैं। अप्राकृत
शरीर इन सबसे विलक्षण हैं, जो महाप्रलयमें भी नष्ट नहीं
होते। और भगवद्देह तो साक्षात् भगवत्स्वरूप ही है। देव-शरीर प्राय:
रक्त-मांस-मेद-अस्थिवाले नहीं होते। अप्राकृत शरीर भी नहीं होते। फिर भगवान्
श्रीकृष्णका भगवत्स्वरूप शरीर तो रक्त-मांस-अस्थिमय होता ही कैसे। वह तो सर्वथा
चिदानन्दमय है। उसमें देह-देही, गुण-गुणी, रूप-रूपी, नाम-नामी और लीला तथा लीलापुरुषोत्तमका
भेद नहीं है। श्रीकृष्णका एक-एक अङ्ग पूर्ण श्रीकृष्ण है। श्रीकृष्णका मुखमण्डल
जैसे पूर्ण श्रीकृष्ण है, वैसे ही श्रीकृष्णका पदनख भी पूर्ण
श्रीकृष्ण है। श्रीकृष्णकी सभी इन्द्रियोंसे सभी काम हो सकते हैं। उनके कान देख सकते
हैं, उनकी आँखें सुन सकती हैं, उनकी
नाक स्पर्श कर सकती है, उनकी रसना सूँघ सकती है, उनकी त्वचा स्वाद ले सकती है। वे हाथोंसे देख सकते हैं, आँखोंसे चल सकते हैं। श्रीकृष्णका सब कुछ श्रीकृष्ण होनेके कारण वह सर्वथा
पूर्णतम है। इसीसे उनकी रूपमाधुरी नित्यवद्र्धनशील, नित्य
नवीन सौन्दर्यमयी है। उसमें ऐसा चमत्कार है कि वह स्वयं अपनेको ही आकर्षित कर लेती
है। फिर उनके सौन्दर्य-माधुर्यसे गौ-हरिन और वृक्ष-बेल पुलकित हो जायँ, इसमें तो कहना ही क्या है। भगवान्के ऐसे स्वरूपभूत शरीरसे गंदा मैथुनकर्म
सम्भव नहीं। मनुष्य जो कुछ खाता है, उससे क्रमश: रस, रक्त, मांस, मेद, मज्जा और अस्थि बनकर अन्तमें शुक्र बनता है; इसी
शुक्रके आधारपर शरीर रहता है और मैथुनक्रियामें इसी शुक्रका क्षरण हुआ करता है।
भगवान् का शरीर न तो कर्मजन्य है, न मैथुनी सृष्टिका है और
न दैवी ही है वह तो इन सबसे परे सर्वथा विशुद्ध भगवत्स्वरूप है। उसमें रक्त,
मांस अस्थि आदि नहीं हैं; अतएव उसमें शुक्र भी
नहीं है। इसलिये उससे प्राकृत पाञ्चभौतिक शरीरोंवाले स्त्री-पुरुषोंके रमण या
मैथुनकी कल्पना भी नहीं हो सकती। इसीलिये भगवान्को उपनिषद्में ‘अखण्ड ब्रह्मचारी’ बतलाया गया है और इसीसे भागवतमें
उनके लिये ‘अवरुद्धसौरत’ आदि शब्द आये
हैं। फिर कोई शङ्का करे कि उनके सोलह हजार एक सौ आठ रानियोंके इतने पुत्र कैसे हुए
तो इसका सीधा उत्तर यही है कि यह सारी भागवती सृष्टि थी, भगवान्के
संकल्पसे हुई थी। भगवान् के शरीरमें जो रक्त-मांस आदि दिखलायी पड़ते हैं, वह तो भगवान् की योगमाया का चमत्कार है। इस विवेचनसे भी यही सिद्ध होता
है कि गोपियोंके साथ भगवान् श्रीकृष्ण का जो रमण हुआ वह सर्वथा दिव्य
भगवत्-राज्यकी लीला है, लौकिक काम-क्रीडा नहीं।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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