सोमवार, 6 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

यज्ञपत्नियों पर कृपा

 

गत्वाथ पत्‍नीशालायां दृष्ट्वासीनाः स्वलङ्‌कृताः ।

नत्वा द्विजसतीर्गोपाः प्रश्रिता इदमब्रुवन् ॥ १५ ॥

नमो वो विप्रपत्‍नीभ्यो निबोधत वचांसि नः ।

इतोऽविदूरे चरता कृष्णेनेहेषिता वयम् ॥ १६ ॥

गाश्चारयन् स गोपालैः सरामो दूरमागतः ।

बुभुक्षितस्य तस्यान्नं सानुगस्य प्रदीयताम् ॥ १७ ॥

श्रुत्वाच्युतं उपायातं नित्यं तद्दर्शनोत्सुकाः ।

तत्कथाक्षिप्तमनसो बभूवुर्जातसम्भ्रमाः ॥ १८ ॥

चतुर्विधं बहुगुणं अन्नमादाय भाजनैः ।

अभिसस्रुः प्रियं सर्वाः समुद्रमिव निम्नगाः ॥ १९ ॥

निषिध्यमानाः पतिभिः भ्रातृभिर्बन्धुभिः सुतैः ।

भगवति उत्तमश्लोके दीर्घश्रुत धृताशयाः ॥ २० ॥

यमुनोपवनेऽशोक नवपल्लवमण्डिते ।

विचरन्तं वृतं गोपैः साग्रजं ददृशुः स्त्रियः ॥ २१ ॥

श्यामं हिरण्यपरिधिं वनमाल्यबर्ह

धातुप्रवालनटवेषमनव्रतांसे ।

विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जं

कर्णोत्पलालक कपोलमुखाब्जहासम् ॥ २२ ॥

प्रायःश्रुतप्रियतमोदयकर्णपूरैः

यस्मिन् निमग्नमनसः तं अथाक्षिरंध्रैः ।

अन्तः प्रवेश्य सुचिरं परिरभ्य तापं

प्राज्ञं यथाभिमतयो विजहुर्नरेन्द्र ॥ २३ ॥

तास्तथा त्यक्तसर्वाशाः प्राप्ता आत्मदिदृक्षया ।

विज्ञायाखिलदृग्द्रष्टा प्राह प्रहसिताननः ॥ २४ ॥

स्वागतं वो महाभागा आस्यतां करवाम किम् ।

यन्नो दिदृक्षया प्राप्ता उपपन्नमिदं हि वः ॥ २५ ॥

नन्वद्धा मयि कुर्वन्ति कुशलाः स्वार्थदर्शिनः ।

अहैतुक्यव्यवहितां भक्तिमात्मप्रिये यथा ॥ २६ ॥

प्राणबुद्धिमनःस्वात्म दारापत्यधनादयः ।

यत्सम्पर्कात् प्रिया आसन् ततः को न्वपरः प्रियः ॥ २७ ॥

तद् यात देवयजनं पतयो वो द्विजातयः ।

स्वसत्रं पारयिष्यन्ति युष्माभिर्गृहमेधिनः ॥ २८ ॥

                                                                                                                                                                                                                                                                              

अबकी बार ग्वालबाल पत्नीशाला में गये। वहाँ जाकर देखा तो ब्राह्मणों की पत्नियाँ सुन्दर- सुन्दर वस्त्र और गहनों से सज-धजकर बैठी हैं। उन्होंने द्विजपत्नियों को प्रणाम करके बड़ी नम्रता से यह बात कही॥ १५ ॥ आप विप्रपत्नियोंको हम नमस्कार करते हैं। आप कृपा करके हमारी बात सुनें। भगवान्‌ श्रीकृष्ण यहाँसे थोड़ी ही दूरपर आये हुए हैं और उन्होंने ही हमें आपके पास भेजा है ॥ १६ ॥ वे ग्वालबाल और बलरामजीके साथ गौएँ चराते हुए इधर बहुत दूर आ गये हैं। इस समय उन्हें और उनके साथियोंको भूख लगी है। आप उनके लिये कुछ भोजन दे दें॥ १७ ॥ परीक्षित्‌! वे ब्राह्मणियाँ बहुत दिनोंसे भगवान्‌ की मनोहर लीलाएँ सुनती थीं। उनका मन उनमें लग चुका था। वे सदा-सर्वदा इस बातके लिये उत्सुक रहतीं कि किसी प्रकार श्रीकृष्णके दर्शन हो जायँ। श्रीकृष्णके आनेकी बात सुनते ही वे उतावली हो गयीं ॥ १८ ॥ उन्होंने बर्तनोंमें अत्यन्त स्वादिष्ट और हितकर भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्यचारों प्रकारकी भोजन सामग्री ले ली तथा भाई-बन्धु, पति-पुत्रोंके रोकते रहनेपर भी अपने प्रियतम भगवान्‌ श्रीकृष्णके पास जानेके लिये घरसे निकल पड़ींठीक वैसे ही, जैसे नदियाँ समुद्रके लिये। क्यों न हो; न जाने कितने दिनोंसे पवित्रकीर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णके गुण, लीला, सौन्दर्य और माधुर्य आदिका वर्णन सुन-सुनकर उन्होंने उनके चरणोंपर अपना हृदय निछावर कर दिया था ॥ १९-२० ॥ ब्राह्मणपत्नियोंने जाकर देखा कि यमुनाके तटपर नये-नये कोंपलोंसे शोभायमान अशोक-वनमें ग्वालबालोंसे घिरे हुए बलरामजीके साथ श्रीकृष्ण इधर-उधर घूम रहे हैं ॥ २१ ॥ उनके साँवले शरीरपर सुनहला पीताम्बर झिलमिला रहा है। गलेमें वनमाला लटक रही है। मस्तकपर मोरपंखका मुकुट है। अङ्ग-अङ्गमें रंगीन धातुओंसे चित्रकारी कर रखी है। नये-नये कोंपलोंके गुच्छे शरीरमें लगाकर नटका-सा वेष बना रखा है। एक हाथ अपने सखा ग्वालबालके कंधेपर रखे हुए हैं और दूसरे हाथसे कमलका फूल नचा रहे हैं। कानोंमें कमलके कुण्डल हैं, कपोलोंपर घुँघराली अलकें लटक रही हैं और मुख कमल मन्द-मन्द मुसकानकी रेखासे प्रफुल्लित हो रहा है ॥ २२ ॥ परीक्षित्‌ ! अबतक अपने प्रियतम श्यामसुन्दरके गुण और लीलाएँ अपने कानोंसे सुन-सुनकर उन्होंने अपने मनको उन्हींके प्रेमके रंगमें रँग डाला था, उसीमें सराबोर कर दिया था। अब नेत्रोंके मार्गसे उन्हें भीतर ले जाकर बहुत देरतक वे मन-ही-मन उनका आलिङ्गन करती रहीं और इस प्रकार उन्होंने अपने हृदयकी जलन शान्त कीठीक वैसे ही, जैसे जाग्रत् और स्वप्न-अवस्थाओंकी वृत्तियाँ यह मैं, यह मेराइस भावसे जलती रहती हैं, परंतु सुषुप्ति-अवस्थामें उसके अभिमानी प्राज्ञको पाकर उसीमें लीन हो जाती हैं और उनकी सारी जलन मिट जाती है ॥ २३ ॥

 

प्रिय परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ सबके हृदयकी बात जानते हैं, सबकी बुद्धियोंके साक्षी हैं। उन्होंने जब देखा कि ये ब्राह्मणपत्नियाँ अपने भाई-बन्धु और पति-पुत्रोंके रोकनेपर भी सब सगे-सम्बन्धियों और विषयोंकी आशा छोडक़र केवल मेरे दर्शनकी लालसासे ही मेरे पास आयी हैं, तब उन्होंने उनसे कहा। उस समय उनके मुखारविन्दपर हास्यकी तरङ्गें अठखेलियाँ कर रही थीं ॥ २४ ॥ भगवान्‌ने कहा—‘महाभाग्यवती देवियो ! तुम्हारा स्वागत है। आओ, बैठो। कहो, हम तुम्हारा क्या स्वागत करें ? तुमलोग हमारे दर्शनकी इच्छासे यहाँ आयी हो, यह तुम्हारे-जैसे प्रेमपूर्ण हृदयवालोंके योग्य ही है ॥ २५ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि संसारमें अपनी सच्ची भलाईको समझनेवाले जितने भी बुद्धिमान् पुरुष हैं, वे अपने प्रियतम के समान ही मुझसे प्रेम करते हैं, और ऐसा प्रेम करते हैं, जिस में किसी प्रकार की कामना नहीं रहतीजिसमें किसी प्रकार का व्यवधान, संकोच, छिपाव, दुविधा या द्वैत नहीं होता ॥ २६ ॥ प्राण, बुद्धि, मन, शरीर, स्वजन, स्त्री, पुत्र और धन आदि संसारकी सभी वस्तुएँ जिसके लिये और जिसकी सन्निधि से प्रिय लगती हैंउस आत्मासे, परमात्मासे, मुझ श्रीकृष्णसे बढक़र और कौन प्यारा हो सकता है ॥ २७ ॥ इसलिये तुम्हारा आना उचित ही है। मैं तुम्हारे प्रेमका अभिनन्दन करता हूँ। परंतु अब तुमलोग मेरा दर्शन कर चुकीं। अब अपनी यज्ञ- शाला में लौट जाओ। तुम्हारे पति ब्राह्मण गृहस्थ हैं। वे तुम्हारे साथ मिलकर ही अपना यज्ञ पूर्ण कर सकेंगे॥ २८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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