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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छियालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
उद्धवजी
की व्रजयात्रा
तमागतं
समागम्य कृष्णस्यानुचरं प्रियम्
नन्दः
प्रीतः परिष्वज्य वासुदेवधियार्चयत् ॥१४॥
भोजितं
परमान्नेन संविष्टं कशिपौ सुखम्
गतश्रमं
पर्यपृच्छत्पादसंवाहनादिभिः ॥१५॥
कच्चिदङ्ग
महाभाग सखा नः शूरनन्दनः
आस्ते
कुशल्यपत्याद्यैर्युक्तो मुक्तः सुहृद्व्रतः ॥१६॥
दिष्ट्या
कंसो हतः पापः सानुगः स्वेन पाप्मना
साधूनां
धर्मशीलानां यदूनां द्वेष्टि यः सदा ॥१७॥
अपि
स्मरति नः कृष्णो मातरं सुहृदः सखीन्
गोपान्व्रजं
चात्मनाथं गावो वृन्दावनं गिरिम् ॥१८॥
अप्यायास्यति
गोविन्दः स्वजनान्सकृदीक्षितुम्
तर्हि
द्रक्ष्याम तद्वक्त्रं सुनसं सुस्मितेक्षणम् ॥१९॥
दावाग्नेर्वातवर्षाच्च
वृषसर्पाच्च रक्षिताः
दुरत्ययेभ्यो
मृत्युभ्यः कृष्णेन सुमहात्मना ॥२०॥
स्मरतां
कृष्णवीर्याणि लीलापाङ्गनिरीक्षितम्
हसितं
भाषितं चाङ्ग सर्वा नः शिथिलाः क्रियाः ॥२१॥
सरिच्छैलवनोद्देशान्मुकुन्दपदभूषितान्
आक्रीडानीक्ष्यमाणानां
मनो याति तदात्मताम् ॥२२॥
मन्ये
कृष्णं च रामं च प्राप्ताविह सुरोत्तमौ
सुराणां
महदर्थाय गर्गस्य वचनं यथा ॥२३॥
कंसं
नागायुतप्राणं मल्लौ गजपतिं यथा
अवधिष्टां
लीलयैव पशूनिव मृगाधिपः ॥२४॥
तालत्रयं
महासारं धनुर्यष्टिमिवेभराट्
बभञ्जैकेन
हस्तेन सप्ताहमदधाद्गिरिम् ॥२५॥
प्रलम्बो
धेनुकोऽरिष्टस्तृणावर्तो बकादयः
दैत्याः
सुरासुरजितो हता येनेह लीलया ॥२६॥
श्रीशुक
उवाच
इति
संस्मृत्य संस्मृत्य नन्दः कृष्णानुरक्तधीः
अत्युत्कण्ठोऽभवत्तूष्णीं
प्रेमप्रसरविह्वलः ॥२७॥
यशोदा
वर्ण्यमानानि पुत्रस्य चरितानि च
शृण्वन्त्यश्रूण्यवास्राक्षीत्स्नेहस्नुतपयोधरा
॥२८॥
तयोरित्थं
भगवति कृष्णे नन्दयशोदयोः
वीक्ष्यानुरागं
परमं नन्दमाहोद्धवो मुदा ॥२९॥
जब
भगवान् श्रीकृष्णके प्यारे अनुचर उद्धवजी व्रजमें आये, तब उनसे मिलकर नन्दबाबा बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने उद्धवजीको गले
लगाकर उनका वैसे ही सम्मान किया, मानो स्वयं भगवान्
श्रीकृष्ण आ गये हों ॥ १४ ॥ समयपर उत्तम अन्नका भोजन कराया और जब वे आरामसे पलँगपर
बैठ गये, सेवकोंने पाँव दबाकर, पंखा
झलकर उनकी थकावट दूर कर दी ॥ १५ ॥ तब नन्दबाबाने उनसे पूछा—‘परम
भाग्यवान् उद्धवजी ! अब हमारे सखा वसुदेवजी जेलसे छूट गये। उनके आत्मीय स्वजन तथा
पुत्र आदि उनके साथ हैं। इस समय वे सब कुशलसे तो हैं न ? ॥
१६ ॥ यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि अपने पापोंके फलस्वरूप पापी कंस अपने
अनुयायियोंके साथ मारा गया। क्योंकि स्वभावसे ही धाॢमक परम साधु यदुवंशियोंसे वह
सदा द्वेष करता था ॥ १७ ॥ अच्छा उद्धवजी ! श्रीकृष्ण कभी हमलोगोंकी भी याद करते
हैं ? यह उनकी माँ हैं, स्वजन-सम्बन्धी
हैं, सखा हैं, गोप हैं; उन्हींको अपना स्वामी और सर्वस्व माननेवाला यह व्रज है; उन्हींकी गौएँ, वृन्दावन और यह गिरिराज है, क्या वे कभी इनका स्मरण करते हैं ? ॥ १८ ॥ आप यह तो
बतलाइये कि हमारे गोविन्द अपने सुह्ृद्-बान्धवोंको देखनेके लिये एक बार भी यहाँ
आयेंगे क्या ? यदि वे यहाँ आ जाते तो हम उनकी वह सुघड़
नासिका, उनका मधुर हास्य और मनोहर चितवनसे युक्त मुखकमल देख
तो लेते ॥ १९ ॥ उद्धवजी ! श्रीकृष्णका हृदय उदार है, उनकी
शक्ति अनन्त है, उन्होंने दावानलसे, आँधी-पानीसे,
वृषासुर और अजगर आदि अनेकों मृत्युके निमित्तोंसे—जिन्हें टालनेका कोई उपाय न था—एक बार नहीं, अनेक बार हमारी रक्षा की है ॥ २० ॥ उद्धवजी ! हम श्रीकृष्णके विचित्र
चरित्र, उनकी विलासपूर्ण तिरछी चितवन, उन्मुक्त
हास्य, मधुर भाषण आदिका स्मरण करते रहते हैं और उसमें इतने
तन्मय रहते हैं कि अब हमसे कोई काम-काज नहीं हो पाता ॥ २१ ॥ जब हम देखते हैं कि यह
वही नदी है, जिसमें श्रीकृष्ण जलक्रीडा करते थे; यह वही गिरिराज है, जिसे उन्होंने अपने एक हाथपर उठा
लिया था; ये वे ही वनके प्रदेश हैं, जहाँ
श्रीकृष्ण गौएँ चराते हुए बाँसुरी बजाते थे, और ये वे ही
स्थान हैं, जहाँ वे अपने सखाओंके साथ अनेकों प्रकारके खेल
खेलते थे; और साथ ही यह भी देखते हैं कि वहाँ उनके चरणचिह्न
अभी मिटे नहीं हैं, तब उन्हें देखकर हमारा मन श्रीकृष्णमय हो
जाता है ॥ २२ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि मैं श्रीकृष्ण और बलरामको देवशिरोमणि मानता
हूँ और यह भी मानता हूँ कि वे देवताओंका कोई बहुत बड़ा प्रयोजन सिद्ध करनेके लिये
यहाँ आये हुए हैं। स्वयं भगवान् गर्गाचार्यजीने मुझसे ऐसा ही कहा था ॥ २३ ॥ जैसे
सिंह बिना किसी परिश्रमके पशुओंको मार डालता है, वैसे ही उन्होंने
खेल-खेलमें ही दस हजार हाथियोंका बल रखनेवाले कंस, उसके
दोनों अजेय पहलवानों और महान् बलशाली गजराज कुवलयापीडक़ो मार डाला ॥ २४ ॥ उन्होंने
तीन ताल लंबे और अत्यन्त दृढ़ धनुषको वैसे ही तोड़ डाला, जैसे
कोई हाथी किसी छड़ीको तोड़ डाले। हमारे प्यारे श्रीकृष्णने एक हाथसे सात दिनोंतक
गिरिराजको उठाये रखा था ॥ २५ ॥ यहीं सबके देखते-देखते खेल- खेलमें उन्होंने
प्रलम्ब, धेनुक, अरिष्ट, तृणावर्त और बक आदि उन बड़े-बड़े दैत्योंको मार डाला, जिन्होंने समस्त देवता और असुरोंपर विजय प्राप्त कर ली थी’ ॥ २६ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! नन्दबाबाका हृदय यों ही भगवान् श्रीकृष्णके अनुराग-रंगमें
रँगा हुआ था। जब इस प्रकार वे उनकी लीलाओंका एक-एक करके स्मरण करने लगे, तब तो उनमें प्रेमकी बाढ़ ही आ गयी, वे विह्वल हो
गये और मिलनेकी अत्यन्त उत्कण्ठा होनेके कारण उनका गला रुँध गया। वे चुप हो गये ॥
२७ ॥ यशोदारानी भी वहीं बैठकर नन्दबाबाकी बातें सुन रही थीं, श्रीकृष्णकी एक-एक लीला सुनकर उनके नेत्रोंसे आँसू बहते जाते थे और
पुत्रस्नेहकी बाढ़से उनके स्तनोंसे दूधकी धारा बहती जा रही थी ॥ २८ ॥ उद्धवजी
नन्दबाबा और यशोदारानीके हृदयमें श्रीकृष्णके प्रति कैसा अगाध अनुराग है—यह देखकर आनन्दमग्र हो गये और उनसे कहने लगे ॥ २९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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