॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छियालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
उद्धवजी
की व्रजयात्रा
श्रीशुक
उवाच
वृष्णीनां
प्रवरो मन्त्री कृष्णस्य दयितः सखा
शिष्यो
बृहस्पतेः साक्षादुद्धवो बुद्धिसत्तमः ॥१॥
तमाह
भगवान्प्रेष्ठं भक्तमेकान्तिनं क्वचित्
गृहीत्वा
पाणिना पाणिं प्रपन्नार्तिहरो हरिः ॥२॥
गच्छोद्धव
व्रजं सौम्य पित्रोर्नौ प्रीतिमावह
गोपीनां
मद्वियोगाधिं मत्सन्देशैर्विमोचय ॥३॥
ता
मन्मनस्का मत्प्राणा मदर्थे त्यक्तदैहिकाः
मामेव
दयितं प्रेष्ठमात्मानं मनसा गताः
ये
त्यक्तलोकधर्माश्च मदर्थे तान्बिभर्म्यहम् ॥४॥
मयि
ताः प्रेयसां प्रेष्ठे दूरस्थे गोकुलस्त्रियः
स्मरन्त्योऽङ्ग
विमुह्यन्ति विरहौत्कण्ठ्यविह्वलाः ॥५॥
धारयन्त्यतिकृच्छ्रेण
प्रायः प्राणान्कथञ्चन
प्रत्यागमनसन्देशैर्बल्लव्यो
मे मदात्मिकाः ॥६॥
श्रीशुक
उवाच
इत्युक्त
उद्धवो राजन्सन्देशं भर्तुरादृतः
आदाय
रथमारुह्य प्रययौ नन्दगोकुलम् ॥७॥
प्राप्तो
नन्दव्रजं श्रीमान्निम्लोचति विभावसौ
छन्नयानः
प्रविशतां पशूनां खुररेणुभिः ॥८॥
वासितार्थेऽभियुध्यद्भिर्नादितं
शुष्मिभिर्वृषैः
धावन्तीभिश्च
वास्राभिरूधोभारैः स्ववत्सकान् ॥९॥
इतस्ततो
विलङ्घद्भिर्गोवत्सैर्मण्डितं सितैः
गोदोहशब्दाभिरवं
वेणूनां निःस्वनेन च ॥१०॥
गायन्तीभिश्च
कर्माणि शुभानि बलकृष्णयोः
स्वलङ्कृताभिर्गोपीभिर्गोपैश्च
सुविराजितम् ॥११॥
अग्न्यर्कातिथिगोविप्र
पितृदेवार्चनान्वितैः
धूपदीपैश्च
माल्यैश्च गोपावासैर्मनोरमम् ॥१२॥
सर्वतः
पुष्पितवनं द्विजालिकुलनादितम्
हंसकारण्डवाकीर्णैः
पद्मषण्डैश्च मण्डितम् ॥१३॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! उद्धवजी वृष्णिवंशियों में एक प्रधान पुरुष थे। वे साक्षात्
बृहस्पतिजी के शिष्य और परम बुद्धिमान् थे। उनकी महिमा के सम्बन्ध में इससे बढक़र
और कौन-सी बात कही जा सकती है कि वे भगवान् श्रीकृष्णके प्यारे सखा तथा मन्त्री
भी थे ॥ १ ॥ एक दिन शरणागतोंके सारे दु:ख हर लेनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने अपने
प्रिय भक्त और एकान्तप्रेमी उद्धवजीका हाथ अपने हाथमें लेकर कहा— ॥ २ ॥ ‘सौम्यस्वभाव उद्धव ! तुम व्रजमें जाओ। वहाँ
मेरे पिता-माता नन्दबाबा और यशोदा मैया हैं, उन्हें आनन्दित
करो; और गोपियाँ मेरे विरहकी व्याधिसे बहुत ही दुखी हो रही
हैं, उन्हें मेरे सन्देश सुनाकर उस वेदनासे मुक्त करो ॥ ३ ॥
प्यारे उद्धव ! गोपियोंका मन नित्य-निरन्तर मुझमें ही लगा रहता है। उनके प्राण,
उनका जीवन, उनका सर्वस्व मैं ही हूँ। मेरे
लिये उन्होंने अपने पति-पुत्र आदि सभी सगे-सम्बन्धियोंको छोड़ दिया है। उन्होंने
बुद्धिसे भी मुझीको अपना प्यारा, अपना प्रियतम—नहीं, नहीं, अपना आत्मा मान
रखा है। मेरा यह व्रत है कि जो लोग मेरे लिये लौकिक और पारलौकिक धर्मोंको छोड़
देते हैं, उनका भरण- पोषण मैं स्वयं करता हूँ ॥ ४ ॥ प्रिय
उद्धव ! मैं उन गोपियोंका परम प्रियतम हूँ। मेरे यहाँ चले आनेसे वे मुझे दूरस्थ
मानती हैं और मेरा स्मरण करके अत्यन्त मोहित हो रही हैं, बार-बार
मूर्च्छित हो जाती हैं। वे मेरे विरहकी व्यथासे विह्वल हो रही हैं, प्रतिक्षण मेरे लिये उत्कण्ठित रहती हैं ॥ ५ ॥ मेरी गोपियाँ, मेरी प्रेयसियाँ इस समय बड़े ही कष्ट और यत्नसे अपने प्राणोंको किसी
प्रकार रख रही हैं। मैंने उनसे कहा था कि ‘मैं आऊँगा।’
वही उनके जीवनका आधार है। उद्धव ! और तो क्या कहूँ, मैं ही उनकी आत्मा हूँ। वे नित्य-निरन्तर मुझमें ही तन्मय रहती हैं’
॥ ६ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! जब भगवान् श्रीकृष्णने यह बात कही, तब
उद्धवजी बड़े आदरसे अपने स्वामीका सन्देश लेकर रथपर सवार हुए और नन्दगाँवके लिये
चल पड़े ॥ ७ ॥ परम सुन्दर उद्धवजी सूर्यास्तके समय नन्दबाबाके व्रजमें पहुँचे। उस
समय जंगलसे गौएँ लौट रही थीं। उनके खुरोंके आघातसे इतनी धूल उड़ रही थी कि उनका रथ
ढक गया था ॥ ८ ॥ व्रजभूमिमें ऋतुमती गौओंके लिये मतवाले साँड़ आपसमें लड़ रहे थे।
उनकी गर्जनासे सारा व्रज गूँज रहा था। थोड़े दिनोंकी ब्यायी हुई गौएँ अपने थनोंके
भारी भारसे दबी होनेपर भी अपने-अपने बछड़ोंकी ओर दौड़ रही थीं ॥ ९ ॥ सफेद रंगके
बछड़े इधर-उधर उछल-कूद मचाते हुए बहुत ही भले मालूम होते थे। गाय दुहनेकी ‘घर-घर’ ध्वनिसे और बाँसुरियोंकी मधुर टेरसे अब भी
व्रजकी अपूर्व शोभा हो रही थी ॥ १० ॥ गोपी और गोप सुन्दर-सुन्दर वस्त्र तथा
गहनोंसे सज-धजकर श्रीकृष्ण तथा बलरामजीके मङ्गलमय चरित्रोंका गान कर रहे थे और इस
प्रकार व्रजकी शोभा और भी बढ़ गयी थी ॥ ११ ॥ गोपोंके घरोंमें अग्रि, सूर्य, अतिथि, गौ, ब्राह्मण और देवता-पितरोंकी पूजा की हुई थी। धूपकी सुगन्ध चारों ओर फैल
रही थी और दीपक जगमगा रहे थे। उन घरोंको पुष्पोंसे सजाया गया था। ऐसे मनोहर गृहोंसे
सारा व्रज और भी मनोरम हो रहा था ॥ १२ ॥ चारों ओर वन-पंक्तियाँ फूलोंसे लद रही
थीं। पक्षी चहक रहे थे और भौंरे गुंजार कर रहे थे। वहाँ जल और स्थल दोनों ही
कमलोंके वनसे शोभायमान थे, और हंस, बत्तख
आदि पक्षी वनमें विहार कर रहे थे ॥ १३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें