॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
श्रीकृष्ण-बलराम
का यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश
श्रीसमुद्र
उवाच
न
चाहार्षमहं देव दैत्यः पञ्चजनो महान्
अन्तर्जलचरः
कृष्ण शङ्खरूपधरोऽसुरः ॥४०॥
आस्ते
तेनाहृतो नूनं तच्छ्रुत्वा सत्वरं प्रभुः
जलमाविश्य
तं हत्वा नापश्यदुदरेऽर्भकम् ॥४१॥
तदङ्गप्रभवं
शङ्खमादाय रथमागमत्
ततः
संयमनीं नाम यमस्य दयितां पुरीम् ॥४२॥
गत्वा
जनार्दनः शङ्खं प्रदध्मौ सहलायुधः
शङ्खनिर्ह्रादमाकर्ण्य
प्रजासंयमनो यमः ॥४३॥
तयोः
सपर्यां महतीं चक्रे भक्त्युपबृंहिताम्
उवाचावनतः
कृष्णं सर्वभूताशयालयम्
लीलामनुष्ययोर्विष्णो
युवयोः करवाम किम् ॥४४॥
श्रीभगवानुवाच
गुरुपुत्रमिहानीतं
निजकर्मनिबन्धनम्
आनयस्व
महाराज मच्छासनपुरस्कृतः ॥४५॥
तथेति
तेनोपानीतं गुरुपुत्रं यदूत्तमौ
दत्त्वा
स्वगुरवे भूयो वृणीष्वेति तमूचतुः ॥४६॥
श्रीगुरुरुवाच
सम्यक्सम्पादितो
वत्स भवद्भ्यां गुरुनिष्क्रयः
को
नु युष्मद्विधगुरोः कामानामवशिष्यते ॥४७॥
गच्छतं
स्वगृहं वीरौ कीर्तिर्वामस्तु पावनी
छन्दांस्ययातयामानि
भवन्त्विह परत्र च ॥४८॥
गुरुणैवमनुज्ञातौ
रथेनानिलरंहसा
आयातौ
स्वपुरं तात पर्जन्यनिनदेन वै ॥४९॥
समनन्दन्प्रजाः
सर्वा दृष्ट्वा रामजनार्दनौ
अपश्यन्त्यो
बह्वहानि नष्टलब्धधना इव ॥५०॥
मनुष्यवेषधारी
समुद्र ने कहा—‘देवाधिदेव श्रीकृष्ण ! मैंने उस बालक को नहीं लिया है। मेरे जलमें पञ्चजन
नामका एक बड़ा भारी दैत्य जातिका असुर शङ्ख के रूपमें रहता है। अवश्य ही उसीने वह
बालक चुरा लिया होगा’ ॥ ४० ॥ समुद्रकी बात सुनकर भगवान्
तुरंत ही जलमें जा घुसे और शङ्खासुर को मार डाला। परंतु वह बालक उसके पेट में नहीं
मिला ॥ ४१ ॥ तब उसके शरीरका शङ्ख लेकर भगवान् रथपर चले आये। वहाँसे बलरामजीके साथ
श्रीकृष्णने यमराजकी प्रिय पुरी संयमनीमें जाकर अपना शङ्ख बजाया। शङ्खका शब्द
सुनकर सारी प्रजाका शासन करनेवाले यमराजने उनका स्वागत किया और भक्तिभावसे भरकर
विधिपूर्वक उनकी बहुत बड़ी पूजा की। उन्होंने नम्रतासे झुककर समस्त प्राणियोंके
हृदयमें विराजमान सच्चिदानन्द-स्वरूप भगवान् श्रीकृष्णसे कहा—‘लीलासे ही मनुष्य बने हुए सर्वव्यापक परमेश्वर ! मैं आप दोनोंकी क्या सेवा
करूँ ?’ ॥ ४२—४४ ॥
श्रीभगवान्
ने कहा—‘यमराज ! यहाँ अपने कर्मबन्धनके अनुसार मेरा गुरुपुत्र लाया गया है। तुम
मेरी आज्ञा स्वीकार करो और उसके कर्मपर ध्यान न देकर उसे मेरे पास ले आओ ॥ ४५ ॥
यमराजने ‘जो आज्ञा’ कहकर भगवान्का
आदेश स्वीकार किया और उनका गुरुपुत्र ला दिया। तब यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण
और बलरामजी उस बालकको लेकर उज्जैन लौट आये और उसे अपने गुरुदेवको सौंपकर कहा कि ‘आप और जो कुछ चाहें, माँग लें’ ॥ ४६ ॥
गुरुजीने
कहा—‘बेटा ! तुम दोनोंने भलीभाँति गुरुदक्षिणा दी। अब और क्या चाहिये ? जो तुम्हारे-जैसे पुरुषोत्तमों का गुरु है, उसका
कौन-सा मनोरथ अपूर्ण रह सकता है ? ॥ ४७ ॥ वीरो ! अब तुम
दोनों अपने घर जाओ। तुम्हें लोकोंको पवित्र करनेवाली कीर्ति प्राप्त हो। तुम्हारी
पढ़ी हुई विद्या इस लोक और परलोकमें सदा नवीन बनी रहे, कभी
विस्मृत न हो’ ॥ ४८ ॥ बेटा परीक्षित् ! फिर गुरुजीसे आज्ञा
लेकर वायुके समान वेग और मेघके समान शब्दवाले रथपर सवार होकर दोनों भाई मथुरा लौट
आये ॥ ४९ ॥ मथुराकी प्रजा बहुत दिनोंतक श्रीकृष्ण और बलरामको न देखनेसे अत्यन्त
दुखी हो रही थी। अब उन्हें आया हुआ देख सब-के-सब परमानन्द में मग्न हो गये,
मानो खोया हुआ धन मिल गया हो ॥ ५० ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे
पूर्वार्धे गुरुपुत्रानयनं नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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