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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
श्रीकृष्ण-बलराम
का यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश
अथो
गुरुकुले वासमिच्छन्तावुपजग्मतुः
काश्यं
सान्दीपनिं नाम ह्यवन्तिपुरवासिनम् ॥३१॥
यथोपसाद्य
तौ दान्तौ गुरौ वृत्तिमनिन्दिताम्
ग्राहयन्तावुपेतौ
स्म भक्त्या देवमिवादृतौ ॥३२॥
तयोर्द्विजवरस्तुष्टः
शुद्धभावानुवृत्तिभिः
प्रोवाच
वेदानखिलान् साङ्गोपनिषदो गुरुः ॥३३॥
सरहस्यं
धनुर्वेदं धर्मान्न्यायपथांस्तथा
तथा
चान्वीक्षिकीं विद्यां राजनीतिं च षड्विधाम् ॥३४॥
सर्वं
नरवरश्रेष्ठौ सर्वविद्याप्रवर्तकौ
सकृन्निगदमात्रेण
तौ सञ्जगृहतुर्नृप ॥३५॥
अहोरात्रैश्चतुःषष्ट्या
संयत्तौ तावतीः कलाः
गुरुदक्षिणयाचार्यं
छन्दयामासतुर्नृप ॥३६॥
द्विजस्तयोस्तं
महिमानमद्भुतं
संलक्ष्य
राजन्नतिमानुषीं मतिम्
सम्मन्त्र्य
पत्न्या स महार्णवे मृतं
बालं
प्रभासे वरयां बभूव ह ॥३७॥
तथेत्यथारुह्य
महारथौ रथं
प्रभासमासाद्य
दुरन्तविक्रमौ
वेलामुपव्रज्य
निषीदतुः क्षणं
सिन्धुर्विदित्वार्हणमाहरत्तयोः
॥३८॥
तमाह
भगवानाशु गुरुपुत्रः प्रदीयताम्
योऽसाविह
त्वया ग्रस्तो बालको महतोर्मिणा ॥३९॥
अब
वे दोनों गुरुकुलमें निवास करनेकी इच्छासे काश्यपगोत्री सान्दीपनि मुनिके पास गये, जो अवन्तीपुर (उज्जैन) में रहते थे ॥ ३१ ॥ वे दोनों भाई विधिपूर्वक
गुरुजीके पास रहने लगे। उस समय वे बड़े ही सुसंयत, अपनी
चेष्टाओंको सर्वथा नियमित रखे हुए थे। गुरुजी तो उनका आदर करते ही थे, भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी भी गुरुकी उत्तम सेवा कैसे करनी चाहिये,
इसका आदर्श लोगोंके सामने रखते हुए बड़ी भक्तिसे इष्टदेवके समान
उनकी सेवा करने लगे ॥ ३२ ॥ गुरुवर सान्दीपनिजी उनकी शुद्धभावसे युक्त सेवासे बहुत
प्रसन्न हुए। उन्होंने दोनों भाइयोंको छहों अङ्ग और उपनिषदोंके सहित सम्पूर्ण वेदोंकी
शिक्षा दी ॥ ३३ ॥ इनके सिवा मन्त्र और देवताओंके ज्ञानके साथ धनुर्वेद, मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्र, मीमांसा आदि, वेदोंका तात्पर्य बतलानेवाले शास्त्र, तर्कविद्या
(न्यायशास्त्र) आदिकी भी शिक्षा दी। साथ ही सन्धि, विग्रह,
यान, आसन, द्वैध और
आश्रय—इन छ: भेदोंसे युक्त राजनीतिका भी अध्ययन कराया ॥ ३४ ॥
परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम सारी विद्याओंके प्रवर्तक हैं। इस समय
केवल श्रेष्ठ मनुष्यका-सा व्यवहार करते हुए ही वे अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने
गुरुजीके केवल एक बार कहनेमात्रसे सारी विद्याएँ सीख लीं ॥ ३५ ॥ केवल चौसठ
दिन-रातमें ही संयमीशिरोमणि दोनों भाइयोंने चौंसठों कलाओंका[*] ज्ञान प्राप्त कर
लिया। इस प्रकार अध्ययन समाप्त होनेपर उन्होंने सान्दीपनि मुनिसे प्रार्थना की कि ‘आपकी जो इच्छा हो, गुरु-दक्षिणा माँग लें’ ॥ ३६ ॥ महाराज ! सान्दीपनि मुनिने उनकी अद्भुत महिमा और अलौकिक बुद्धिका
अनुभव कर लिया था। इसलिये उन्होंने अपनी पत्नीसे सलाह करके यह गुरुदक्षिणा माँगी
कि ‘प्रभासक्षेत्रमें हमारा बालक समुद्रमें डूबकर मर गया था,
उसे तुमलोग ला दो’ ॥ ३७ ॥ बलरामजी और
श्रीकृष्णका पराक्रम अनन्त था। दोनों ही महारथी थे। उन्होंने ‘बहुत अच्छा’ कहकर गुरुजीकी आज्ञा स्वीकार की और रथपर
सवार होकर प्रभासक्षेत्रमें गये। वे समुद्रतटपर जाकर क्षणभर बैठे रहे। उस समय यह
जानकर कि ये साक्षात् परमेश्वर हैं, अनेक प्रकारकी
पूजा-सामग्री लेकर समुद्र उनके सामने उपस्थित हुआ ॥ ३८ ॥ भगवान् ने समुद्रसे कहा—‘समुद्र! तुम यहाँ अपनी बड़ी-बड़ी तरङ्गोंसे हमारे जिस गुरुपुत्रको बहा ले
गये थे, उसे लाकर शीघ्र हमें दो’ ॥ ३९
॥
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चौंसठ कलाएँ ये हैं—
१
गानविद्या,
२ वाद्य—भाँति-भाँतिके बाजे बजाना, ३ नृत्य, ४ नाट्य, ५ चित्रकारी,
६ बेल-बूटे बनाना, ७ चावल और पुष्पादिसे
पूजाके उपहारकी रचना करना, ८ फूलोंकी सेज बनाना, ९ दाँत, वस्त्र और अङ्गोंको रँगना, १० मणियोंकी फर्श बनाना, ११ शय्या-रचना, १२ जलको बाँध देना, १३ विचित्र सिद्धियाँ दिखलाना,
१४ हार-माला आदि बनाना, १५ कान और चोटीके
फूलोंके गहने बनाना, १६ कपड़े और गहने बनाना, १७ फूलोंके आभूषणोंसे शृङ्गार करना, १८ कानोंके
पत्तोंकी रचना करना, १९ सुगन्धित वस्तुएँ—इत्र, तैल आदि बनाना, २०
इन्द्रजाल—जादूगरी, २१ चाहे जैसा वेष
धारण कर लेना, २२ हाथकी फुर्तीके काम, २३
तरह-तरहकी खानेकी वस्तुएँ बनाना, २४ तरह-तरहके पीनेके पदार्थ
बनाना, २५ सूईका काम, २६ कठपुतली बनाना,
नचाना, २७ पहेली, २८
प्रतिमा आदि बनाना, २९ कूटनीति, ३०
ग्रन्थोंके पढ़ानेकी चातुरी, ३१ नाटक, आख्यायिका
आदिकी रचना करना, ३२ समस्यापूर्ति करना, ३३ पट्टी, बेंत, बाण आदि बनाना,
३४ गलीचे, दरी आदि बनाना, ३५ बढ़ईकी कारीगरी, ३६ गृह आदि बनानेकी कारीगरी,
३७ सोने, चाँदी आदि धातु तथा हीरे-पन्ने आदि
रत्नोंकी परीक्षा, ३८ सोना-चाँदी आदि बना लेना, ३९ मणियोंके रंगको पहचानना, ४० खानोंकी पहचान,
४१ वृक्षोंकी चिकित्सा, ४२ भेड़ा मुर्गा,
बटेर आदिको लड़ानेकी रीति, ४३ तोता-मैना आदिकी
बोलियाँ बोलना, ४४ उच्चाटनकी विधि, ४५
केशोंकी सफाईका कौशल, ४६ मु_ीकी चीज या
मनकी बात बता देना, ४७ म्लेच्छ-काव्योंका समझ लेना, ४८ विभिन्न देशोंकी भाषाका ज्ञान, ४९ शकुन-अपशकुन
जानना, प्रश्रोंके उत्तरमें शुभाशुभ बतलाना, ५० नाना प्रकारके मातृकायन्त्र बनाना, ५१ रत्नोंको
नाना प्रकारके आकारोंमें काटना, ५२ सांकेतिक भाषा बनाना,
५३ मनमें कटकरचना करना, ५४ नयी-नयी बातें
निकालना, ५५ छलसे काम निकालना, ५६
समस्त कोशोंका ज्ञान, ५७ समस्त छन्दोंका ज्ञान, ५८ वस्त्रोंको छिपाने या बदलनेकी विद्या, ५९ द्यूत
क्रीड़ा, ६० दूरके मनुष्य या वस्तुओंका आकर्षण कर लेना,
६१ बालकोंके खेल, ६२ मन्त्रविद्या, ६३ विजय प्राप्त करानेवाली विद्या, ६४ वेताल आदिको
वशमें रखनेकी विद्या।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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