॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
श्रीकृष्ण-बलराम
का यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश
अथ
नन्दं समसाद्य भगवान्देवकीसुतः
सङ्कर्षणश्च
राजेन्द्र परिष्वज्येदमूचतुः ॥२०॥
पितर्युवाभ्यां
स्निग्धाभ्यां पोषितौ लालितौ भृशम्
पित्रोरभ्यधिका
प्रीतिरात्मजेष्वात्मनोऽपि हि ॥२१॥
स
पिता सा च जननी यौ पुष्णीतां स्वपुत्रवत्
शिशून्बन्धुभिरुत्सृष्टानकल्पैः
पोषरक्षणे ॥२२॥
यात
यूयं व्रजं तात वयं च स्नेहदुःखितान्
ज्ञातीन्वो
द्रष्टुमेष्यामो विधाय सुहृदां सुखम् ॥२३॥
एवं
सान्त्वय्य भगवान्नन्दं सव्रजमच्युतः
वासोऽलङ्कारकुप्याद्यैरर्हयामास
सादरम् ॥२४॥
इत्युक्तस्तौ
परिष्वज्य नन्दः प्रणयविह्वलः
पूरयन्नश्रुभिर्नेत्रे
सह गोपैर्व्रजं ययौ ॥२५॥
अथ
शूरसुतो राजन्पुत्रयोः समकारयत्
पुरोधसा
ब्राह्मणैश्च यथावद्द्विजसंस्कृतिम् ॥२६॥
तेभ्योऽदाद्दक्षिणा
गावो रुक्ममालाः स्वलङ्कृताः
स्वलङ्कृतेभ्यः
सम्पूज्य सवत्साः क्षौममालिनीः ॥२७॥
याः
कृष्णरामजन्मर्क्षे मनोदत्ता महामतिः
ताश्चाददादनुस्मृत्य
कंसेनाधर्मतो हृताः ॥२८॥
ततश्च
लब्धसंस्कारौ द्विजत्वं प्राप्य सुव्रतौ
गर्गाद्यदुकुलाचार्याद्गायत्रं
व्रतमास्थितौ ॥२९॥
प्रभवौ
सर्वविद्यानां सर्वज्ञौ जगदीश्वरौ
नान्यसिद्धामलं
ज्ञानं गूहमानौ नरेहितैः ॥३०॥
प्रिय
परीक्षित् ! अब देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों ही नन्दबाबाके पास
आये और गले लगनेके बाद उनसे कहने लगे— ॥ २० ॥ ‘पिताजी ! आपने और माँ यशोदाने बड़े स्नेह और दुलार से हमारा लालन-पालन
किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि माता-पिता सन्तानपर अपने शरीर से भी अधिक स्नेह
करते हैं ॥ २१ ॥ जिन्हें पालन-पोषण न कर सकनेके कारण स्वजन-सम्बन्धियों ने त्याग
दिया है, उन बालकोंको जो लोग अपने पुत्रके समान लाड़-प्यारसे
पालते हैं, वे ही वास्तवमें उनके माँ-बाप हैं ॥ २२ ॥ पिताजी
! अब आपलोग व्रजमें जाइये। इसमें सन्देह नहीं कि हमारे बिना वात्सल्य-स्नेहके कारण
आपलोगोंको बहुत दु:ख होगा। यहाँके सुहृद्- सम्बन्धियोंको सुखी करके हम आपलोगोंसे
मिलनेके लिये आयेंगे’ ॥ २३ ॥ भगवान् श्रीकृष्णने नन्दबाबा
और दूसरे व्रजवासियोंको इस प्रकार समझा-बुझाकर बड़े आदरके साथ वस्त्र, आभूषण और अनेक धातुओंके बने बरतन आदि देकर उनका सत्कार किया ॥ २४ ॥ भगवान्की
बात सुनकर नन्दबाबाने प्रेमसे अधीर होकर दोनों भाइयोंको गले लगा लिया और फिर
नेत्रोंमें आँसू भरकर गोपोंके साथ व्रजके लिये प्रस्थान किया ॥ २५ ॥
हे
राजन् ! इसके बाद वसुदेवजीने अपने पुरोहित गर्गाचार्य तथा दूसरे ब्राह्मणोंसे
दोनों पुत्रोंका विधिपूर्वक द्विजाति-समुचित यज्ञोपवीत संस्कार करवाया ॥ २६ ॥
उन्होंने विविध प्रकारके वस्त्र और आभूषणोंसे ब्राह्मणोंका सत्कार करके उन्हें
बहुत-सी दक्षिणा तथा बछड़ोंवाली गौएँ दीं। सभी गौएँ गलेमें सोनेकी माला पहने हुए
थीं तथा और भी बहुत-से आभूषणों एवं रेशमी वस्त्रोंकी मालाओंसे विभूषित थीं ॥ २७ ॥
महामति वसुदेवजीने भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीके जन्म- नक्षत्रमें जितनी गौएँ
मन-ही-मन संकल्प करके दी थीं, उन्हें पहले कंसने अन्यायसे छीन
लिया था। अब उनका स्मरण करके उन्होंने ब्राह्मणोंको वे फिरसे दीं ॥ २८ ॥ इस प्रकार
यदुवंशके आचार्य गर्गजीसे संस्कार कराकर बलरामजी और भगवान् श्रीकृष्ण द्विजत्वको
प्राप्त हुए। उनका ब्रह्मचर्यव्रत अखण्ड तो था ही, अब
उन्होंने गायत्रीपूर्वक अध्ययन करनेके लिये उसे नियमत: स्वीकार किया ॥ २९ ॥
श्रीकृष्ण और बलराम जगत्के एकमात्र स्वामी हैं। सर्वज्ञ हैं। सभी विद्याएँ
उन्हींसे निकली हैं। उनका निर्मल ज्ञान स्वत:सिद्ध है। फिर भी उन्होंने
मनुष्यकी-सी लीला करके उसे छिपा रखा था ॥ ३० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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