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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
श्रीकृष्ण-बलराम
का यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश
श्रीशुक
उवाच
इति
मायामनुष्यस्य हरेर्विश्वात्मनो गिरा
मोहितावङ्कमारोप्य
परिष्वज्यापतुर्मुदम् ॥१०॥
सिञ्चन्तावश्रुधाराभिः
स्नेहपाशेन चावृतौ
न
किञ्चिदूचतू राजन्बाष्पकण्ठौ विमोहितौ ॥११॥
एवमाश्वास्य
पितरौ भगवान्देवकीसुतः
मातामहं
तूग्रसेनं यदूनामकरोन्नृपम् ॥१२॥
आह
चास्मान्महाराज प्रजाश्चाज्ञप्तुमर्हसि
ययातिशापाद्यदुभिर्नासितव्यं
नृपासने ॥१३॥
मयि
भृत्य उपासीने भवतो विबुधादयः
बलिं
हरन्त्यवनताः किमुतान्ये नराधिपाः ॥१४॥
सर्वान्स्वान्ज्ञातिसम्बन्धान्दिग्भ्यः
कंसभयाकुलान्
यदुवृष्ण्यन्धकमधु
दाशार्हकुकुरादिकान् ॥१५॥
सभाजितान्समाश्वास्य
विदेशावासकर्शितान्
न्यवासयत्स्वगेहेषु
वित्तैः सन्तर्प्य विश्वकृत् ॥१६॥
कृष्णसङ्कर्षणभुजैर्गुप्ता
लब्धमनोरथाः
गृहेषु
रेमिरे सिद्धाः कृष्णरामगतज्वराः ॥१७॥
वीक्षन्तोऽहरहः
प्रीता मुकुन्दवदनाम्बुजम्
नित्यं
प्रमुदितं श्रीमत्सदयस्मितवीक्षणम् ॥१८॥
तत्र
प्रवयसोऽप्यासन्युवानोऽतिबलौजसः
पिबन्तोऽक्षैर्मुकुन्दस्य
मुखाम्बुजसुधां मुहुः ॥१९॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! अपनी लीलासे मनुष्य बने हुए विश्वात्मा श्रीहरिकी इस वाणीसे
मोहित हो देवकी-वसुदेवने उन्हें गोदमें उठा लिया और हृदयसे चिपकाकर परमानन्द
प्राप्त किया ॥ १० ॥ राजन् ! वे स्नेह-पाशसे बँधकर पूर्णत: मोहित हो गये और
आँसुओंकी धारासे उनका अभिषेक करने लगे। यहाँतक कि आँसुओंके कारण गला रुँध जानेसे
वे कुछ बोल भी न सके ॥ ११ ॥
देवकीनन्दन
भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार अपने माता-पिताको सान्त्वना देकर अपने नाना
उग्रसेनको यदुवंशियोंका राजा बना दिया ॥ १२ ॥ और उनसे कहा—‘महाराज ! हम आपकी प्रजा हैं। आप हमलोगोंपर शासन कीजिये। राजा ययातिका शाप
होनेके कारण यदुवंशी राजसिंहासनपर नहीं बैठ सकते; (परंतु मेरी
ऐसी ही इच्छा है, इसलिये आपको कोई दोष न होगा।) ॥ १३ ॥ जब
मैं सेवक बनकर आपकी सेवा करता रहूँगा, तब बड़े-बड़े देवता भी
सिर झुकाकर आपको भेंट देंगे।’ दूसरे नरपतियोंके बारेमें तो
कहना ही क्या है ॥ १४ ॥ परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण ही सारे विश्वके विधाता
हैं। उन्होंने, जो कंसके भयसे व्याकुल होकर इधर-उधर भाग गये
थे, उन यदु, वृष्णि, अन्धक, मधु, दाशाहर् और कुकुर
आदि वंशोंमें उत्पन्न समस्त सजातीय सम्बन्धियों को ढूँढ़-ढूँढक़र बुलवाया। उन्हें
घरसे बाहर रहनेमें बड़ा क्लेश उठाना पड़ा था। भगवान् ने उनका सत्कार किया,
सान्त्वना दी और उन्हें खूब धन-सम्पत्ति देकर तृप्त किया तथा
अपने-अपने घरोंमें बसा दिया ॥ १५-१६ ॥ अब सारे-के-सारे यदुवंशी भगवान् श्रीकृष्ण
तथा बलरामजीके बाहुबलसे सुरक्षित थे। उनकी कृपासे उन्हें किसी प्रकारकी व्यथा नहीं
थी, दु:ख नहीं था। उनके सारे मनोरथ सफल हो गये थे। वे
कृतार्थ हो गये थे। अब वे अपने-अपने घरोंमें आनन्दसे विहार करने लगे ॥ १७ ॥ भगवान्
श्रीकृष्णका वदन आनन्दका सदन है। वह नित्य प्रफुल्लित, कभी न
कुम्हलानेवाला कमल है। उसका सौन्दर्य अपार है। सदय हास और चितवन उसपर सदा नाचती
रहती है। यदुवंशी दिन-प्रतिदिन उसका दर्शन करके आनन्दमग्र रहते ॥ १८ ॥ मथुराके
वृद्ध पुरुष भी युवकोंके समान अत्यन्त बलवान् और उत्साही हो गये थे; क्योंकि वे अपने नेत्रोंके दोनोंसे बारंबार भगवान् के मुखारविन्दका
अमृतमय मकरन्द-रस पान करते रहते थे ॥ १९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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