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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
श्रीकृष्ण-बलराम
का यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश
श्रीशुक
उवाच
पितरावुपलब्धार्थौ
विदित्वा पुरुषोत्तमः
मा
भूदिति निजां मायां ततान जनमोहिनीम् ॥१॥
उवाच
पितरावेत्य साग्रजः सात्वर्षभः
प्रश्रयावनतः
प्रीणन्नम्ब तातेति सादरम् ॥२॥
नास्मत्तो
युवयोस्तात नित्योत्कण्ठितयोरपि
बाल्यपौगण्डकैशोराः
पुत्राभ्यामभवन्क्वचित् ॥३॥
न
लब्धो दैवहतयोर्वासो नौ भवदन्तिके
यां
बालाः पितृगेहस्था विन्दन्ते लालिता मुदम् ॥४॥
सर्वार्थसम्भवो
देहो जनितः पोषितो यतः
न
तयोर्याति निर्वेशं पित्रोर्मर्त्यः शतायुषा ॥५॥
यस्तयोरात्मजः
कल्प आत्मना च धनेन च
वृत्तिं
न दद्यात्तं प्रेत्य स्वमांसं खादयन्ति हि ॥६॥
मातरं
पितरं वृद्धं भार्यां साध्वीं सुतं शिशुम्
गुरुं
विप्रं प्रपन्नं च कल्पोऽबिभ्रच्छ्वसन्मृतः ॥७॥
तन्नावकल्पयोः
कंसान्नित्यमुद्विग्नचेतसोः
मोघमेते
व्यतिक्रान्ता दिवसा वामनर्चतोः ॥८॥
तत्क्षन्तुमर्हथस्तात
मातर्नौ परतन्त्रयोः
अकुर्वतोर्वां
शुश्रूषां क्लिष्टयोर्दुर्हृदा भृशम् ॥९॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि माता-पिताको मेरे ऐश्वर्यका,
मेरे भगवद्भाव का ज्ञान हो गया है, परंतु
इन्हें ऐसा ज्ञान होना ठीक नहीं, (इससे तो ये पुत्र-स्नेहका
सुख नहीं पा सकेंगे—) ऐसा सोचकर उन्होंने उनपर अपनी वह
योगमाया फैला दी, जो उनके स्वजनोंको मुग्ध रखकर उनकी लीलामें
सहायक होती है ॥ १ ॥ यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण बड़े भाई बलरामजीके साथ अपने
माँ-बापके पास जाकर आदरपूर्वक और विनयसे झुककर ‘मेरी अम्मा !
मेरे पिताजी !’ इन शब्दोंसे उन्हें प्रसन्न करते हुए कहने
लगे— ॥ २ ॥ ‘पिताजी ! माताजी ! हम आपके
पुत्र हैं और आप हमारे लिये सर्वदा उत्कण्ठित रहे हैं, फिर
भी आप हमारे बाल्य, पौगण्ड और किशोरावस्थाका सुख हमसे नहीं
पा सके ॥ ३ ॥ दुर्दैववश हमलोगोंको आपके पास रहनेका सौभाग्य ही नहीं मिला। इसीसे
बालकोंको माता-पिताके घरमें रहकर जो लाड़-प्यारका सुख मिलता है, वह हमें भी नहीं मिल सका ॥ ४ ॥ पिता और माता ही इस शरीरको जन्म देते हैं और
इसका लालन-पालन करते हैं। तब कहीं जाकर यह शरीर, धर्म,
अर्थ, काम अथवा मोक्षकी प्राप्तिका साधन बनता
है। यदि कोई मनुष्य सौ वर्षतक जीकर माता और पिताकी सेवा करता रहे, तब भी वह उनके उपकारसे उऋण नहीं हो सकता ॥ ५ ॥ जो पुत्र सामथ्र्य रहते भी
अपने माँ-बापकी शरीर और धनसे सेवा नहीं करता, उसके मरनेपर
यमदूत उसे उसके अपने शरीरका मांस खिलाते हैं ॥ ६ ॥ जो पुरुष समर्थ होकर भी बूढ़े
माता-पिता, सती पत्नी, बालक, सन्तान, गुरु, ब्राह्मण और
शरणागतका भरण-पोषण नहीं करता—वह जीता हुआ भी मुर्देके समान
ही है ! ॥ ७ ॥ पिताजी ! हमारे इतने दिन व्यर्थ ही बीत गये। क्योंकि कंसके भयसे सदा
उद्विग्रचित्त रहनेके कारण हम आपकी सेवा करनेमें असमर्थ रहे ॥ ८ ॥ मेरी माँ और
मेरे पिताजी ! आप दोनों हमें क्षमा करें। हाय ! दुष्ट कंसने आपको इतने-इतने कष्ट
दिये, परंतु हम परतन्त्र रहनेके कारण आपकी कोई सेवा-शुश्रूषा
न कर सके’ ॥ ९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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