॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौवालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
चाणूर, मुष्टिक आदि पहलवानों का तथा कंस का उद्धार
तस्यानुजा
भ्रातरोऽष्टौ कंकन्यग्रोधकादयः ।
अभ्यधावन्
अतिक्रुद्धा भ्रातुर्निर्वेशकारिणः ॥ ४० ॥
तथातिरभसांस्तांस्तु
संयत्तात् रोहिणीसुतः ।
अहन्
परिघमुद्यम्य पशूनिव मृगाधिपः ॥ ४१ ॥
नेदुर्दुन्दुभयो
व्योम्नि ब्रह्मेशाद्या विभूतयः ।
पुष्पैः
किरन्तस्तं प्रीताः शशंसुर्ननृतुः स्त्रियः ॥ ४२ ॥
तेषां
स्त्रियो महाराज सुहृन्मरणदुःखिताः ।
तत्राभीयुर्विनिघ्नन्त्यः
शीर्षाण्यश्रुविलोचनाः ॥ ४३ ॥
शयानान्
न्वीरशय्यायां पतीन् आलिङ्ग्य शोचतीः ।
विलेपुः
सुस्वरं नार्यो विसृजन्त्यो मुहुः शुचः ॥ ४४ ॥
हा
नाथ प्रिय धर्मज्ञ करुणानाथवत्सल ।
त्वया
हतेन निहता वयं ते सगृहप्रजाः ॥ ४५ ॥
त्वया
विरहिता पत्या पुरीयं पुरुषर्षभ ।
न
शोभते वयमिव निवृत्तोत्सवमङ्गला ॥ ४६ ॥
अनागसां
त्वं भूतानां कृतवान् द्रोहमुल्बणम् ।
तेनेमां
भो दशां नीतो भूतध्रुक् को लभेत शम् ॥ ४७ ॥
सर्वेषामिह
भूतानां एष हि प्रभवाप्ययः ।
गोप्ता
च तदवध्यायी न क्वचित् सुखमेधते ॥ ४८ ॥
श्रीशुक
उवाच -
राजयोषित
आश्वास्य भगवान् लोकभावनः ।
यामाहुर्लौकिकीं
संस्थां हतानां समकारयत् ॥ ४९ ॥
मातरं
पितरं चैव मोचयित्वाथ बन्धनात् ।
कृष्णरामौ
ववन्दाते शिरसा स्पृश्य पादयोः ॥ ५० ॥
देवकी
वसुदेवश्च विज्ञाय जगदीश्वरौ ।
कृतसंवन्दनौ
पुत्रौ सस्वजाते न शङ्कितौ ॥ ५१ ॥
कंस
के कङ्क और न्यग्रोध आदि आठ छोटे भाई थे। वे अपने बड़े भाई का बदला लेने के लिये
क्रोधसे आग-बबूले होकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामकी ओर दौड़े ॥ ४० ॥ जब भगवान्
बलरामजी ने देखा कि वे बड़े वेगसे युद्धके लिये तैयार होकर दौड़े आ रहे हैं, तब उन्होंने परिघ उठाकर उन्हें वैसे ही मार डाला, जैसे
सिंह पशुओंको मार डालता है ॥ ४१ ॥ उस समय आकाश में दुन्दुभियाँ बजने लगीं। भगवान्
के विभूतिस्वरूप ब्रह्मा, शङ्कर आदि देवता बड़े आनन्द से
पुष्पोंकी वर्षा करते हुए उनकी स्तुति करने लगे। अप्सराएँ नाचने लगीं ॥ ४२ ॥
महाराज ! कंस और उसके भाइयोंकी स्त्रियाँ अपने आत्मीय स्वजनोंकी मृत्युसे अत्यन्त
दु:खित हुर्ईं। वे अपने सिर पीटती हुई आँखोंमें आँसू भरे वहाँ आयीं ॥ ४३ ॥
वीरशय्या पर सोये हुए अपने पतियोंसे लिपटकर वे शोकग्रस्त हो गयीं और बार-बार आँसू
बहाती हुई ऊँचे स्वरसे विलाप करने लगीं ॥ ४४ ॥ ‘हा नाथ ! हे
प्यारे ! हे धर्मज्ञ ! हे करुणामय ! हे अनाथवत्सल ! आपकी मृत्युसे हम सबकी मृत्यु
हो गयी। आज हमारे घर उजड़ गये। हमारी सन्तान अनाथ हो गयी ॥ ४५ ॥ पुरुषश्रेष्ठ ! इस
पुरीके आप ही स्वामी थे। आपके विरहसे इसके उत्सव समाप्त हो गये और मङ्गलचिह्न उतर
गये। यह हमारी ही भाँति विधवा होकर शोभाहीन हो गयी ॥ ४६ ॥ स्वामी ! आपने निरपराध
प्राणियोंके साथ घोर द्रोह किया था, अन्याय किया था; इसीसे आपकी यह गति हुई। सच है, जो जगत्के जीवोंसे
द्रोह करता है, उनका अहित करता है, ऐसा
कौन पुरुष शान्ति पा सकता है ? ॥ ४७ ॥ ये भगवान् श्रीकृष्ण
जगत्के समस्त प्राणियोंकी उत्पत्ति और प्रलयके आधार हैं। यही रक्षक भी हैं। जो
इनका बुरा चाहता है, इनका तिरस्कार करता है; वह कभी सुखी नहीं हो सकता ॥ ४८ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण ही सारे संसारके जीवनदाता हैं। उन्होंने
रानियोंको ढाढ़स बँधाया, सान्त्वना दी; फिर लोकरीतिके अनुसार मरनेवालोंका जैसा क्रिया-कर्म होता है, वह सब कराया ॥ ४९ ॥ तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीने जेलमें जाकर
अपने माता-पिताको बन्धनसे छुड़ाया और सिरसे स्पर्श करके उनके चरणोंकी वन्दना की ॥
५० ॥ किन्तु अपने पुत्रोंके प्रणाम करनेपर भी देवकी और वसुदेवने उन्हें जगदीश्वर
समझकर अपने हृदयसे नहीं लगाया। उन्हें शङ्का हो गयी कि हम जगदीश्वर को पुत्र कैसे
समझें ॥ ५१ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे
पूर्वार्धे कंसवधो नाम चतुर्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४४ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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