सोमवार, 17 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौवालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौवालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

चाणूर, मुष्टिक आदि पहलवानों का तथा कंस का उद्धार

 

तस्यानुजा भ्रातरोऽष्टौ कंकन्यग्रोधकादयः ।

अभ्यधावन् अतिक्रुद्धा भ्रातुर्निर्वेशकारिणः ॥ ४० ॥

तथातिरभसांस्तांस्तु संयत्तात् रोहिणीसुतः ।

अहन् परिघमुद्यम्य पशूनिव मृगाधिपः ॥ ४१ ॥

नेदुर्दुन्दुभयो व्योम्नि ब्रह्मेशाद्या विभूतयः ।

पुष्पैः किरन्तस्तं प्रीताः शशंसुर्ननृतुः स्त्रियः ॥ ४२ ॥

तेषां स्त्रियो महाराज सुहृन्मरणदुःखिताः ।

तत्राभीयुर्विनिघ्नन्त्यः शीर्षाण्यश्रुविलोचनाः ॥ ४३ ॥

शयानान् न्वीरशय्यायां पतीन् आलिङ्‌ग्य शोचतीः ।

विलेपुः सुस्वरं नार्यो विसृजन्त्यो मुहुः शुचः ॥ ४४ ॥

हा नाथ प्रिय धर्मज्ञ करुणानाथवत्सल ।

त्वया हतेन निहता वयं ते सगृहप्रजाः ॥ ४५ ॥

त्वया विरहिता पत्या पुरीयं पुरुषर्षभ ।

न शोभते वयमिव निवृत्तोत्सवमङ्‌गला ॥ ४६ ॥

अनागसां त्वं भूतानां कृतवान् द्रोहमुल्बणम् ।

तेनेमां भो दशां नीतो भूतध्रुक् को लभेत शम् ॥ ४७ ॥

सर्वेषामिह भूतानां एष हि प्रभवाप्ययः ।

गोप्ता च तदवध्यायी न क्वचित् सुखमेधते ॥ ४८ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

राजयोषित आश्वास्य भगवान् लोकभावनः ।

यामाहुर्लौकिकीं संस्थां हतानां समकारयत् ॥ ४९ ॥

मातरं पितरं चैव मोचयित्वाथ बन्धनात् ।

कृष्णरामौ ववन्दाते शिरसा स्पृश्य पादयोः ॥ ५० ॥

देवकी वसुदेवश्च विज्ञाय जगदीश्वरौ ।

कृतसंवन्दनौ पुत्रौ सस्वजाते न शङ्‌कितौ ॥ ५१ ॥

 

कंस के कङ्क और न्यग्रोध आदि आठ छोटे भाई थे। वे अपने बड़े भाई का बदला लेने के लिये क्रोधसे आग-बबूले होकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामकी ओर दौड़े ॥ ४० ॥ जब भगवान्‌ बलरामजी ने देखा कि वे बड़े वेगसे युद्धके लिये तैयार होकर दौड़े आ रहे हैं, तब उन्होंने परिघ उठाकर उन्हें वैसे ही मार डाला, जैसे सिंह पशुओंको मार डालता है ॥ ४१ ॥ उस समय आकाश में दुन्दुभियाँ बजने लगीं। भगवान्‌ के विभूतिस्वरूप ब्रह्मा, शङ्कर आदि देवता बड़े आनन्द से पुष्पोंकी वर्षा करते हुए उनकी स्तुति करने लगे। अप्सराएँ नाचने लगीं ॥ ४२ ॥ महाराज ! कंस और उसके भाइयोंकी स्त्रियाँ अपने आत्मीय स्वजनोंकी मृत्युसे अत्यन्त दु:खित हुर्ईं। वे अपने सिर पीटती हुई आँखोंमें आँसू भरे वहाँ आयीं ॥ ४३ ॥ वीरशय्या पर सोये हुए अपने पतियोंसे लिपटकर वे शोकग्रस्त हो गयीं और बार-बार आँसू बहाती हुई ऊँचे स्वरसे विलाप करने लगीं ॥ ४४ ॥ हा नाथ ! हे प्यारे ! हे धर्मज्ञ ! हे करुणामय ! हे अनाथवत्सल ! आपकी मृत्युसे हम सबकी मृत्यु हो गयी। आज हमारे घर उजड़ गये। हमारी सन्तान अनाथ हो गयी ॥ ४५ ॥ पुरुषश्रेष्ठ ! इस पुरीके आप ही स्वामी थे। आपके विरहसे इसके उत्सव समाप्त हो गये और मङ्गलचिह्न उतर गये। यह हमारी ही भाँति विधवा होकर शोभाहीन हो गयी ॥ ४६ ॥ स्वामी ! आपने निरपराध प्राणियोंके साथ घोर द्रोह किया था, अन्याय किया था; इसीसे आपकी यह गति हुई। सच है, जो जगत्के जीवोंसे द्रोह करता है, उनका अहित करता है, ऐसा कौन पुरुष शान्ति पा सकता है ? ॥ ४७ ॥ ये भगवान्‌ श्रीकृष्ण जगत्के समस्त प्राणियोंकी उत्पत्ति और प्रलयके आधार हैं। यही रक्षक भी हैं। जो इनका बुरा चाहता है, इनका तिरस्कार करता है; वह कभी सुखी नहीं हो सकता ॥ ४८ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही सारे संसारके जीवनदाता हैं। उन्होंने रानियोंको ढाढ़स बँधाया, सान्त्वना दी; फिर लोकरीतिके अनुसार मरनेवालोंका जैसा क्रिया-कर्म होता है, वह सब कराया ॥ ४९ ॥ तदनन्तर भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीने जेलमें जाकर अपने माता-पिताको बन्धनसे छुड़ाया और सिरसे स्पर्श करके उनके चरणोंकी वन्दना की ॥ ५० ॥ किन्तु अपने पुत्रोंके प्रणाम करनेपर भी देवकी और वसुदेवने उन्हें जगदीश्वर समझकर अपने हृदयसे नहीं लगाया। उन्हें शङ्का हो गयी कि हम जगदीश्वर को पुत्र कैसे समझें ॥ ५१ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे कंसवधो नाम चतुर्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४४ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...