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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छियालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
उद्धवजी
की व्रजयात्रा
श्रीउद्धव
उवाच
युवां
श्लाघ्यतमौ नूनं देहिनामिह मानद
नारायणेऽखिलगुरौ
यत्कृता मतिरीदृशी ॥३०॥
एतौ
हि विश्वस्य च बीजयोनी
रामो
मुकुन्दः पुरुषः प्रधानम्
अन्वीय
भूतेषु विलक्षणस्य
ज्ञानस्य
चेशात इमौ पुराणौ ॥३१॥
यस्मिन्जनः
प्राणवियोगकाले
क्षणं
समावेश्य मनोऽविशुद्धम्
निर्हृत्य
कर्माशयमाशु याति
परां
गतिं ब्रह्ममयोऽर्कवर्णः ॥३२॥
तस्मिन्भवन्तावखिलात्महेतौ
नारायणे
कारणमर्त्यमूर्तौ
भावं
विधत्तां नितरां महात्मन्
किं
वावशिष्टं युवयोः सुकृत्यम् ॥३३॥
आगमिष्यत्यदीर्घेण
कालेन व्रजमच्युतः
प्रियं
विधास्यते पित्रोर्भगवान्सात्वतां पतिः ॥३४॥
हत्वा
कंसं रङ्गमध्ये प्रतीपं सर्वसात्वताम्
यदाह
वः समागत्य कृष्णः सत्यं करोति तत् ॥३५॥
मा
खिद्यतं महाभागौ द्रक्ष्यथः कृष्णमन्तिके
अन्तर्हृदि
स भूतानामास्ते ज्योतिरिवैधसि ॥३६॥
न
ह्यस्यास्ति प्रियः कश्चिन्नाप्रियो वास्त्यमानिनः
नोत्तमो
नाधमो वापि समानस्यासमोऽपि वा ॥३७॥
न
माता न पिता तस्य न भार्या न सुतादयः
नात्मीयो
न परश्चापि न देहो जन्म एव च ॥३८॥
न
चास्य कर्म वा लोके सदसन्मिश्रयोनिषु
क्रीडार्थं
सोऽपि साधूनां परित्राणाय कल्पते ॥३९॥
सत्त्वं
रजस्तम इति भजते निर्गुणो गुणान्
क्रीडन्नतीतोऽपि
गुणैः सृजत्यवन्हन्त्यजः ॥४०॥
यथा
भ्रमरिकादृष्ट्या भ्राम्यतीव महीयते
चित्ते
कर्तरि तत्रात्मा कर्तेवाहंधिया स्मृतः ॥४१॥
युवयोरेव
नैवायमात्मजो भगवान्हरिः
सर्वेषामात्मजो
ह्यात्मा पिता माता स ईश्वरः ॥४२॥
दृष्टं
श्रुतं भूतभवद्भविष्यत्
स्थास्नुश्चरिष्णुर्महदल्पकं
च
विनाच्युताद्वस्तुतरां
न वाच्यं
स
एव सर्वं परमात्मभूतः ॥४३॥
एवं
निशा सा ब्रुवतोर्व्यतीता
नन्दस्य
कृष्णानुचरस्य राजन्
गोप्यः
समुत्थाय निरूप्य दीपान्
वास्तून्समभ्यर्च्य
दौधीन्यमन्थुन् ॥४४॥
ता
दीपदीप्तैर्मणिभिर्विरेजू
रज्जूर्विकर्षद्भुजकङ्कणस्रजः
चलन्नितम्बस्तनहारकुण्डल-
त्विषत्कपोलारुणकुङ्कुमाननाः
॥४५॥
उद्गायतीनामरविन्दलोचनं
व्रजाङ्गनानां
दिवमस्पृशद्ध्वनिः
दध्नश्च
निर्मन्थनशब्दमिश्रितो
निरस्यते
येन दिशाममङ्गलम् ॥४६॥
भगवत्युदिते
सूर्ये नन्दद्वारि व्रजौकसः
दृष्ट्वा
रथं शातकौम्भं कस्यायमिति चाब्रुवन् ॥४७॥
अक्रूर
आगतः किं वा यः कंसस्यार्थसाधकः
येन
नीतो मधुपुरीं कृष्णः कमललोचनः ॥४८॥
किं
साधयिष्यत्यस्माभिर्भर्तुः प्रीतस्य निष्कृतिम्
ततः
स्त्रीणां वदन्तीनामुद्धवोऽगात्कृताह्निकः ॥४९॥
उद्धवजीने
कहा—हे मानद ! इसमें सन्देह नहीं कि आप दोनों समस्त शरीरधारियोंमें अत्यन्त
भाग्यवान् हैं, सराहना करनेयोग्य हैं। क्योंकि जो सारे चराचर
जगत्के बनानेवाले और उसे ज्ञान देनेवाले नारायण हैं, उनके
प्रति आपके हृदयमें ऐसा वात्सल्यस्नेह—पुत्रभाव है ॥ ३० ॥
बलराम और श्रीकृष्ण पुराणपुरुष हैं; वे सारे संसारके
उपादानकारण और निमित्तकारण भी हैं। भगवान् श्रीकृष्ण पुरुष हैं तो बलरामजी प्रधान
(प्रकृति)। ये ही दोनों समस्त शरीरोंमें प्रविष्ट होकर उन्हें जीवनदान देते हैं और
उनमें उनसे अत्यन्त विलक्षण जो ज्ञानस्वरूप जीव है, उसका
नियमन करते हैं ॥ ३१ ॥ जो जीव मृत्युके समय अपने शुद्ध मनको एक क्षणके लिये भी
उनमें लगा देता है, वह समस्त कर्म-वासनाओंको धो बहाता है और
शीघ्र ही सूर्यके समान तेजस्वी तथा ब्रह्ममय होकर परमगतिको प्राप्त होता है ॥ ३२ ॥
वे भगवान् ही, जो सबके आत्मा और परम कारण हैं, भक्तोंकी अभिलाषा पूर्ण करने और पृथ्वीका भार उतारनेके लिये मनुष्यका-सा
शरीर ग्रहण करके प्रकट हुए हैं। उनके प्रति आप दोनोंका ऐसा सुदृढ़ वात्सल्यभाव है;
फिर महात्माओ ! आप दोनोंके लिये अब कौन-सा शुभ कर्म करना शेष रह
जाता है ॥ ३३ ॥ भक्तवत्सल यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण थोड़े ही दिनोंमें
व्रजमें आयेंगे और आप दोनोंको—अपने माँ-बापको आनन्दित करेंगे
॥ ३४ ॥ जिस समय उन्होंने समस्त यदुवंशियोंके द्रोही कंसको रंगभूमिमें मार डाला और
आपके पास आकर कहा कि ‘मैं व्रजमें आऊँगा’, उस कथनको वे सत्य करेंगे ॥ ३५ ॥ नन्दबाबा और माता यशोदाजी ! आप दोनों परम
भाग्यशाली हैं। खेद न करें। आप श्रीकृष्णको अपने पास ही देखेंगे; क्योंकि जैसे काष्ठमें अग्रि सदा ही व्यापक रूपसे रहती है, वैसे ही वे समस्त प्राणियोंके हृदयमें सर्वदा विराजमान रहते हैं ॥ ३६ ॥ एक
शरीरके प्रति अभिमान न होनेके कारण न तो कोई उनका प्रिय है और न तो अप्रिय। वे
सबमें और सबके प्रति समान हैं; इसलिये उनकी दृष्टिमें न तो
कोई उत्तम है और न तो अधम। यहाँतक कि विषमताका भाव रखनेवाला भी उनके लिये विषम
नहीं है ॥ ३७ ॥ न तो उनकी कोई माता है और न पिता। न पत्नी है और न तो पुत्र आदि। न
अपना है और न तो पराया। न देह है और न तो जन्म ही ॥ ३८ ॥ इस लोकमें उनका कोई कर्म
नहीं है फिर भी वे साधुओंके परित्राणके लिये, लीला करनेके
लिये देवादि सात्त्विक, मत्स्यादि तामस एवं मनुष्य आदि मिश्र
योनियोंमें शरीर धारण करते हैं ॥ ३९ ॥ भगवान् अजन्मा हैं। उनमें प्राकृत सत्त्व,
रज आदिमेंसे एक भी गुण नहीं है। इस प्रकार इन गुणोंसे अतीत होनेपर
भी लीलाके लिये खेल- खेलमें वे सत्त्व, रज और तम—इन तीनों गुणोंको स्वीकार कर लेते हैं और उनके द्वारा जगत् की रचना,
पालन और संहार करते हैं ॥ ४० ॥ जब बच्चे घुमरीपरेता खेलने लगते हैं
या मनुष्य वेगसे चक्कर लगाने लगते हैं, तब उन्हें सारी
पृथ्वी घूमती हुई जान पड़ती है। वैसे ही वास्तवमें सब कुछ करनेवाला चित्त ही है;
परंतु उस चित्तमें अहंबुद्धि हो जानेके कारण, भ्रमवश
उसे आत्मा—अपना ‘मैं’ समझ लेनेके कारण, जीव अपनेको कर्ता समझने लगता है ॥
४१ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण केवल आप दोनोंके ही पुत्र नहीं हैं, वे
समस्त प्राणियोंके आत्मा, पुत्र, पिता-माता
और स्वामी भी हैं ॥ ४२ ॥ बाबा ! जो कुछ देखा या सुना जाता है—वह चाहे भूतसे सम्बन्ध रखता हो, वर्तमानसे अथवा भविष्यसे;
स्थावर हो या जङ्गम हो, महान् हो अथवा अल्प हो—ऐसी कोई वस्तु ही नहीं है जो भगवान् श्रीकृष्णसे पृथक् हो। बाबा !
श्रीकृष्णके अतिरिक्त ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे वस्तु कह
सकें। वास्तवमें सब वे ही हैं, वे ही परमार्थ सत्य हैं ॥ ४३
॥
परीक्षित्
! भगवान् श्रीकृष्णके सखा उद्धव और नन्दबाबा इसी प्रकार आपसमें बात करते रहे और
वह रात बीत गयी। कुछ रात शेष रहनेपर गोपियाँ उठीं, दीपक जलाकर
उन्होंने घरकी देहलियोंपर वास्तुदेवका पूजन किया, अपने
घरोंको झाड़-बुहारकर साफ किया और फिर दही मथने लगीं ॥ ४४ ॥ गोपियोंकी कलाइयोंमें
कंगन शोभायमान हो रहे थे, रस्सी खींचते समय वे बहुत भली
मालूम हो रही थीं। उनके नितम्ब, स्तन और गलेके हार हिल रहे
थे। कानोंके कुण्डल हिल- हिलकर उनके कुङ्कुम-मण्डित कपोलोंकी लालिमा बढ़ा रहे थे।
उनके आभूषणोंकी मणियाँ दीपककी ज्योतिसे और भी जगमगा रही थीं और इस प्रकार वे
अत्यन्त शोभासे सम्पन्न होकर दही मथ रही थीं ॥ ४५ ॥ उस समय गोपियाँ— कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णके मङ्गलमय चरित्रोंका गान कर रही थीं। उनका वह
सङ्गीत दही मथनेकी ध्वनिसे मिलकर और भी अद्भुत हो गया तथा स्वर्गलोकतक जा पहुँचा,
जिसकी स्वर-लहरी सब ओर फैलकर दिशाओंका अमङ्गल मिटा देती है ॥ ४६ ॥
जब
भगवान् भुवनभास्करका उदय हुआ, तब व्रजाङ्गनाओंने देखा कि
नन्दबाबाके दरवाजेपर एक सोनेका रथ खड़ा है। वे एक-दूसरेसे पूछने लगीं ‘यह किसका रथ है ?’ ॥ ४७ ॥ किसी गोपीने कहा—‘कंसका प्रयोजन सिद्ध करनेवाला अक्रूर ही तो कहीं फिर नहीं आ गया है ?
जो कमलनयन प्यारे श्यामसुन्दरको यहाँसे मथुरा ले गया था’ ॥ ४८ ॥ किसी दूसरी गोपीने कहा—‘क्या अब वह हमें ले
जाकर अपने मरे हुए स्वामी कंसका पिण्डदान करेगा ? अब यहाँ
उसके आनेका और क्या प्रयोजन हो सकता है?’ व्रजवासिनी
स्त्रियाँ इसी प्रकार आपसमें बातचीत कर रही थीं कि उसी समय नित्यकर्मसे निवृत्त
होकर उद्धवजी आ पहुँचे ॥ ४९ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे
पूर्वार्धे नन्दशोकापनयनं नाम षट्चत्वारिंशोऽध्यायः॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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