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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
उद्धव
तथा गोपियों की बातचीत और भ्रमरगीत
श्रीशुक
उवाच
तं
वीक्ष्य कृषानुचरं व्रजस्त्रियः
प्रलम्बबाहुं
नवकञ्जलोचनम्
पीताम्बरं
पुष्करमालिनं लसन्
मुखारविन्दं
परिमृष्टकुण्डलम् ॥१॥
सुविस्मिताः
कोऽयमपीव्यदर्शनः
कुतश्च
कस्याच्युतवेषभूषणः
इति
स्म सर्वाः परिवव्रुरुत्सुकास्
तमुत्तमःश्लोकपदाम्बुजाश्रयम्
॥२॥
तं
प्रश्रयेणावनताः सुसत्कृतं
सव्रीडहासेक्षणसूनृतादिभिः
रहस्यपृच्छन्नुपविष्टमासने
विज्ञाय
सन्देशहरं रमापतेः ॥३॥
जानीमस्त्वां
यदुपतेः पार्षदं समुपागतम्
भर्त्रेह
प्रेषितः पित्रोर्भवान्प्रियचिकीर्षया ॥४॥
अन्यथा
गोव्रजे तस्य स्मरणीयं न चक्ष्महे
स्नेहानुबन्धो
बन्धूनां मुनेरपि सुदुस्त्यजः ॥५॥
अन्येष्वर्थकृता
मैत्री यावदर्थविडम्बनम्
पुम्भिः
स्त्रीषु कृता यद्वत्सुमनःस्विव षट्पदैः ॥६॥
निःस्वं
त्यजन्ति गणिका अकल्पं नृपतिं प्रजाः
अधीतविद्या
आचार्यमृत्विजो दत्तदक्षिणम् ॥७॥
खगा
वीतफलं वृक्षं भुक्त्वा चातिथयो गृहम्
दग्धं
मृगास्तथारण्यं जारा भुक्त्वा रतां स्त्रियम् ॥८॥
इति
गोप्यो हि गोविन्दे गतवाक्कायमानसाः
कृष्णदूते
समायाते उद्धवे त्यक्तलौकिकाः ॥९॥
गायन्त्यः
प्रीयकर्माणि रुदन्त्यश्च गतह्रियः
तस्य
संस्मृत्य संस्मृत्य यानि कैशोरबाल्ययोः ॥१०॥
काचिन्मधुकरं
दृष्ट्वा ध्यायन्ती कृष्णसङ्गमम्
प्रियप्रस्थापितं
दूतं कल्पयित्वेदमब्रवीत् ॥११॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! गोपियोंने देखा कि श्रीकृष्णके सेवक उद्धवजीकी आकृति और
वेषभूषा श्रीकृष्णसे मिलती-जुलती है। घुटनोंतक लंबी-लंबी भुजाएँ हैं, नूतन कमलदलके समान कोमल नेत्र हैं, शरीरपर पीताम्बर
धारण किये हुए हैं, गलेमें कमलपुष्पोंकी माला है, कानोंमें मणिजटित कुण्डल झलक रहे हैं और मुखारविन्द अत्यन्त प्रफुल्लित है
॥ १ ॥ पवित्र मुसकानवाली गोपियोंने आपसमें कहा—‘यह पुरुष
देखनेमें तो बहुत सुन्दर है। परंतु यह है कौन ? कहाँसे आया
है ? किसका दूत है ? इसने
श्रीकृष्ण-जैसी वेषभूषा क्यों धारण कर रखी है ?’ सब-की-सब
गोपियाँ उनका परिचय प्राप्त करनेके लिये अत्यन्त उत्सुक हो गयीं और उनमेंसे
बहुत-सी पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंके आश्रित तथा उनके सेवक-सखा
उद्धवजीको चारों ओरसे घेरकर खड़ी हो गयीं ॥ २ ॥ जब उन्हें मालूम हुआ कि ये तो
रमारमण भगवान् श्रीकृष्णका सन्देश लेकर आये हैं, तब
उन्होंने विनयसे झुककर सलज्ज हास्य, चितवन और मधुर वाणी
आदिसे उद्धवजीका अत्यन्त सत्कार किया तथा एकान्तमें आसनपर बैठाकर वे उनसे इस
प्रकार कहने लगीं— ॥ ३ ॥ ‘उद्धवजी ! हम
जानती हैं कि आप यदुनाथके पार्षद हैं। उन्हींका संदेश लेकर यहाँ पधारे हैं। आपके
स्वामीने अपने माता-पिताको सुख देनेके लिये आपको यहाँ भेजा है ॥ ४ ॥ अन्यथा हमें
तो अब इस नन्दगाँवमें—गौओंके रहनेकी जगहमें उनके स्मरण
करनेयोग्य कोई भी वस्तु दिखायी नहीं पड़ती; माता-पिता आदि
सगे-सम्बन्धियोंका स्नेह-बन्धन तो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी बड़ी कठिनाईसे छोड़ पाते
हैं ॥ ५ ॥ दूसरोंके साथ जो प्रेम-सम्बन्धका स्वाँग किया जाता है, वह तो किसी-न-किसी स्वार्थके लिये ही होता है। भौरोंका पुष्पोंसे और
पुरुषोंका स्त्रियोंसे ऐसा ही स्वार्थका प्रेम-सम्बन्ध होता है ॥ ६ ॥ जब वेश्या
समझती है कि अब मेरे यहाँ आनेवालेके पास धन नहीं है, तब उसे
वह धता बता देती है। जब प्रजा देखती है कि यह राजा हमारी रक्षा नहीं कर सकता,
तब वह उसका साथ छोड़ देती है। अध्ययन समाप्त हो जानेपर कितने शिष्य
अपने आचार्योंकी सेवा करते हैं ? यज्ञकी दक्षिणा मिली कि
ऋत्विज्लोग चलते बने ॥ ७ ॥ जब वृक्षपर फल नहीं रहते, तब
पक्षीगण वहाँसे बिना कुछ सोचे-विचारे उड़ जाते हैं। भोजन कर लेनेके बाद अतिथिलोग
ही गृहस्थकी ओर कब देखते हैं ? वनमें आग लगी कि पशु भाग खड़े
हुए। चाहे स्त्रीके हृदयमें कितना भी अनुराग हो, जार पुरुष
अपना काम बना लेनेके बाद उलटकर भी तो नहीं देखता’ ॥ ८ ॥
परीक्षित् ! गोपियोंके मन, वाणी और शरीर श्रीकृष्णमें ही
तल्लीन थे। जब भगवान् श्रीकृष्णके दूत बनकर उद्धवजी व्रजमें आये, तब वे उनसे इस प्रकार कहते-कहते यह भूल ही गयीं कि कौन-सी बात किस तरह
किसके सामने कहनी चाहिये। भगवान् श्रीकृष्णने बचपनसे लेकर किशोर अवस्थातक जितनी
भी लीलाएँ की थीं, उन सबकी याद कर-करके गोपियाँ उनका गान
करने लगीं। वे आत्मविस्मृत होकर स्त्री-सुलभ लज्जाको भी भूल गयीं और फूट-फूटकर
रोने लगीं ॥ ९-१० ॥ एक गोपीको उस समय स्मरण हो रहा था भगवान् श्रीकृष्णके मिलनकी
लीलाका। उसी समय उसने देखा कि पास ही एक भौंरा गुनगुना रहा है। उसने ऐसा समझा मानो
मुझे रूठी हुई समझकर श्रीकृष्णने मनाने के लिये दूत भेजा हो। वह गोपी भौंरेसे इस
प्रकार कहने लगी— ॥ ११ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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