॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
उद्धव
तथा गोपियों की बातचीत और भ्रमरगीत
मृगयुरिव
कपीन्द्रं विव्यधे लुब्धधर्मा
स्त्रियमकृत
विरूपां स्त्रीजितः कामयानाम्
बलिमपि
बलिमत्त्वावेष्टयद्ध्वाङ्क्षवद्यस्
तदलमसितसख्यैर्दुस्त्यजस्तत्कथार्थः
॥१७॥
यदनुचरितलीलाकर्णपीयूषविप्रुट्
सकृददनविधूतद्वन्द्वधर्मा
विनष्टाः
सपदि
गृहकुटुम्बं दीनमुत्सृज्य दीना
बहव
इह विहङ्गा भिक्षुचर्यां चरन्ति ॥१८॥
वयमृतमिव
जिह्मव्याहृतं श्रद्दधानाः
कुलिकरुतमिवाज्ञाः
कृष्णवध्वो हरिण्यः
ददृशुरसकृदेतत्तन्नखस्पर्शतीव्र
स्मररुज
उपमन्त्रिन्भण्यतामन्यवार्ता ॥१९॥
प्रियसख
पुनरागाः प्रेयसा प्रेषितः किं
वरय
किमनुरुन्धे माननीयोऽसि मेऽङ्ग
नयसि
कथमिहास्मान्दुस्त्यजद्वन्द्वपार्श्वं
सततमुरसि
सौम्य श्रीर्वधूः साकमास्ते ॥२०॥
अपि
बत मधुपुर्यामार्यपुत्रोऽधुनास्ते
स्मरति
स पितृगेहान्सौम्य बन्धूंश्च गोपान्
क्वचिदपि
स कथा नः किङ्करीणां गृणीते
भुजमगुरुसुगन्धं
मूर्ध्न्यधास्यत्कदा नु ॥२१॥
ऐ
रे मधुप ! जब वे राम बने थे, तब उन्होंने कपिराज बालि को
व्याध के समान छिपकर बड़ी निर्दयतासे मारा था। बेचारी शूर्पणखा कामवश उनके पास आयी
थी, परंतु उन्होंने अपनी स्त्रीके वश होकर उस बेचारीके
नाक-कान काट लिये और इस प्रकार उसे कुरूप कर दिया। ब्राह्मणके घर वामनके रूपमें
जन्म लेकर उन्होंने क्या किया ? बलिने तो उनकी पूजा की,
उनकी मुँहमाँगी वस्तु दी और उन्होंने उसकी पूजा ग्रहण करके भी उसे
वरुणपाशसे बाँधकर पातालमें डाल दिया। ठीक वैसे ही, जैसे कौआ
बलि खाकर भी बलि देनेवालेको अपने अन्य साथियोंके साथ मिलकर घेर लेता है और परेशान
करता है। अच्छा, तो अब जाने दे; हमें
श्रीकृष्णसे क्या, किसी भी काली वस्तुके साथ मित्रतासे कोई
प्रयोजन नहीं है। परंतु यदि तू यह कहे कि ‘जब ऐसा है तब
तुमलोग उनकी चर्चा क्यों करती हो ?’ तो भ्रमर ! हम सच कहती
हैं, एक बार जिसे उसका चसका लग जाता है, वह उसे छोड़ नहीं सकता। ऐसी दशामें हम चाहनेपर भी उनकी चर्चा छोड़ नहीं
सकतीं ॥ १७ ॥ श्रीकृष्णकी लीलारूप कर्णामृतके एक कणका भी जो रसास्वादन कर लेता है,
उसके राग-द्वेष, सुख-दु:ख आदि सारे द्वन्द्व
छूट जाते हैं। यहाँतक कि बहुत-से लोग तो अपनी दु:खमय—दु:खसे
सनी हुई घर-गृहस्थी छोडक़र अकिञ्चन हो जाते हैं, अपने पास कुछ
भी संग्रह- परिग्रह नहीं रखते और पक्षियोंकी तरह चुन-चुनकर—भीख
माँगकर अपना पेट भरते हैं, दीन- दुनियासे जाते रहते हैं। फिर
भी श्रीकृष्णकी लीलाकथा छोड़ नहीं पाते। वास्तवमें उसका रस, उसका
चसका ऐसा ही है। यही दशा हमारी हो रही है ॥ १८ ॥ जैसे कृष्णसार मृगकी पत्नी भोली-
भाली हरिनियाँ व्याधके सुमधुर गानका वश्विास कर लेती हैं और उसके जालमें फँसकर
मारी जाती हैं, वैसे ही हम भोली-भाली गोपियाँ भी उस छलिया
कृष्णकी कपटभरी मीठी-मीठी बातोंमें आकर उन्हें सत्यके समान मान बैठीं और उनके
नखस्पर्शसे होनेवाली कामव्याधिका बार-बार अनुभव करती रहीं। इसलिये श्रीकृष्णके दूत
भौंरे ! अब इस विषयमें तू और कुछ मत कह। तुझे कहना ही हो तो कोई दूसरी बात कह ॥ १९
॥ हमारे प्रियतमके प्यारे सखा ! जान पड़ता है तुम एक बार उधर जाकर फिर लौट आये हो।
अवश्य ही हमारे प्रियतमने मनानेके लिये तुम्हें भेजा होगा। प्रिय भ्रमर ! तुम सब
प्रकारसे हमारे माननीय हो। कहो, तुम्हारी क्या इच्छा है ?
हमसे जो चाहो सो माँग लो। अच्छा, तुम सच बताओ,
क्या हमें वहाँ ले चलना चाहते हो ? अजी,
उनके पास जाकर लौटना बड़ा कठिन है। हम तो उनके पास जा चुकी हैं।
परंतु तुम हमें वहाँ ले जाकर करोगे क्या ? प्यारे भ्रमर !
उनके साथ—उनके वक्ष:स्थलपर तो उनकी प्यारी पत्नी लक्ष्मीजी
सदा रहती हैं न ? तब वहाँ हमारा निर्वाह कैसे होगा ॥ २० ॥
अच्छा, हमारे प्रियतमके प्यारे दूत मधुकर ! हमें यह बतलाओ कि
आर्यपुत्र भगवान् श्रीकृष्ण गुरुकुलसे लौटकर मधुपुरीमें अब सुखसे तो हैं न ?
क्या वे कभी नन्दबाबा, यशोदारानी, यहाँके घर, सगे-सम्बन्धी और ग्वालबालोंकी भी याद
करते हैं ? और क्या हम दासियोंकी भी कोई बात कभी चलाते हैं ?
प्यारे भ्रमर ! हमें यह भी बतलाओ कि कभी वे अपनी अगरके समान दिव्य
सुगन्धसे युक्त भुजा हमारे सिरोंपर रखेंगे ? क्या हमारे
जीवनमें कभी ऐसा शुभ अवसर भी आयेगा ? ॥ २१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें