रविवार, 23 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

उद्धव तथा गोपियों की बातचीत और भ्रमरगीत

 

श्रीशुक उवाच

अथोद्धवो निशम्यैवं कृष्णदर्शनलालसाः

सान्त्वयन्प्रियसन्देशैर्गोपीरिदमभाषत २२

 

श्रीउद्धव उवाच

अहो यूयं स्म पूर्णार्था भवत्यो लोकपूजिताः

वासुदेवे भगवति यासामित्यर्पितं मनः २३

दानव्रततपोहोम जपस्वाध्यायसंयमैः

श्रेयोभिर्विविधैश्चान्यैः कृष्णे भक्तिर्हि साध्यते २४

भगवत्युत्तमःश्लोके भवतीभिरनुत्तमा

भक्तिः प्रवर्तिता दिष्ट्या मुनीनामपि दुर्लभा २५

दिष्ट्या पुत्रान्पतीन्देहान्स्वजनान्भवनानि च

हित्वावृणीत यूयं यत्कृष्णाख्यं पुरुषं परम् २६

सर्वात्मभावोऽधिकृतो भवतीनामधोक्षजे

विरहेण महाभागा महान्मेऽनुग्रहः कृतः २७

श्रूयतां प्रियसन्देशो भवतीनां सुखावहः

यमादायागतो भद्रा अहं भर्तू रहस्करः २८

 

श्रीभगवानुवाच

भवतीनां वियोगो मे न हि सर्वात्मना क्वचित्

यथा भूतानि भूतेषु खं वाय्वग्निर्जलं मही

तथाहं च मनःप्राण भूतेन्द्रियगुणाश्रयः २९

आत्मन्येवात्मनात्मानं सृजे हन्म्यनुपालये

आत्ममायानुभावेन भूतेन्द्रियगुणात्मना ३०

आत्मा ज्ञानमयः शुद्धो व्यतिरिक्तोऽगुणान्वयः

सुषुप्तिस्वप्नजाग्रद्भिर्मायावृत्तिभिरीयते ३१

येनेन्द्रियार्थान्ध्यायेत मृषा स्वप्नवदुत्थितः

तन्निरुन्ध्यादिन्द्रियाणि विनिद्रः प्रत्यपद्यत ३२

एतदन्तः समाम्नायो योगः साङ्ख्यं मनीषिणाम्

त्यागस्तपो दमः सत्यं समुद्रान्ता इवापगाः ३३

यत्त्वहं भवतीनां वै दूरे वर्ते प्रियो दृशाम्

मनसः सन्निकर्षार्थं मदनुध्यानकाम्यया ३४

यथा दूरचरे प्रेष्ठे मन आविश्य वर्तते

स्त्रीणां च न तथा चेतः सन्निकृष्टेऽक्षिगोचरे ३५

मय्यावेश्य मनः कृत्स्नं विमुक्ताशेषवृत्ति यत्

अनुस्मरन्त्यो मां नित्यमचिरान्मामुपैष्यथ ३६

या मया क्रीडता रात्र्यां वनेऽस्मिन्व्रज आस्थिताः

अलब्धरासाः कल्याण्यो मापुर्मद्वीर्यचिन्तया ३७

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! गोपियाँ भगवान्‌ श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये अत्यन्त उत्सुकलालायित हो रही थीं, उनके लिये तड़प रही थीं। उनकी बातें सुनकर उद्धवजी ने उन्हें उनके प्रियतम का सन्देश सुनाकर सान्त्वना देते हुए इस प्रकार कहा ॥ २२ ॥

 

उद्धवजीने कहाअहो गोपियो ! तुम कृतकृत्य हो। तुम्हारा जीवन सफल है। देवियो ! तुम सारे संसारके लिये पूजनीय हो; क्योंकि तुमलोगोंने इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्णको अपना हृदय, अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया है ॥ २३ ॥ दान, व्रत, तप, होम, जप, वेदाध्ययन, ध्यान, धारणा, समाधि और कल्याणके अन्य विविध साधनोंके द्वारा भगवान्‌की भक्ति प्राप्त हो, यही प्रयत्न किया जाता है ॥ २४ ॥ यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुमलोगोंने पवित्रकीर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्रति वही सर्वोत्तम प्रेमभक्ति प्राप्त की है और उसीका आदर्श स्थापित किया है, जो बड़े-बड़े ऋषि- मुनियोंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है ॥ २५ ॥ सचमुच यह कितने सौभाग्यकी बात है कि तुमने अपने पुत्र, पति, देह, स्वजन और घरोंको छोडक़र पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्णको, जो सबके परम पति हैं, पतिके रूपमें वरण किया है ॥ २६ ॥ महाभाग्यवती गोपियो ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके वियोगसे तुमने उन इन्द्रियातीत परमात्माके प्रति वह भाव प्राप्त कर लिया है, जो सभी वस्तुओंके रूपमें उनका दर्शन कराता है। तुमलोगोंका वह भाव मेरे सामने भी प्रकट हुआ, यह मेरे ऊपर तुम देवियोंकी बड़ी ही दया है ॥ २७ ॥ मैं अपने स्वामीका गुप्त काम करनेवाला दूत हूँ। तुम्हारे प्रियतम भगवान्‌ श्रीकृष्णने तुमलोगोंको परम सुख देनेके लिये यह प्रिय सन्देश भेजा है। कल्याणियो! वही लेकर मैं तुमलोगोंके पास आया हूँ, अब उसे सुनो ॥ २८ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा हैमैं सबका उपादान कारण होनेसे सबका आत्मा हूँ, सबमें अनुगत हूँ; इसलिये मुझसे कभी भी तुम्हारा वियोग नहीं हो सकता। जैसे संसारके सभी भौतिक पदार्थोंमें आकाश, वायु, अग्रि, जल और पृथ्वीये पाँचों भूत व्याप्त हैं, इन्हींसे सब वस्तुएँ बनी हैं, और यही उन वस्तुओंके रूपमें हैं ? वैसे ही मैं मन, प्राण, पञ्चभूत, इन्द्रिय और उनके विषयोंका आश्रय हूँ। वे मुझमें हैं, मैं उनमें हूँ और सच पूछो तो मैं ही उनके रूपमें प्रकट हो रहा हूँ ॥ २९ ॥ मैं ही अपनी मायाके द्वारा भूत, इन्द्रिय और उनके विषयोंके रूपमें होकर उनका आश्रय बन जाता हूँ तथा स्वयं निमित्त भी बनकर अपने-आपको ही रचता हूँ, पालता हूँ और समेट लेता हूँ ॥ ३० ॥ आत्मा माया और मायाके कार्योंसे पृथक् है। वह विशुद्ध ज्ञानस्वरूप, जड प्रकृति, अनेक जीव तथा अपने ही अवान्तर भेदोंसे रहित सर्वथा शुद्ध है। कोई भी गुण उसका स्पर्श नहीं कर पाते। मायाकी तीन वृत्तियाँ हैंसुषुप्ति, स्वप्न और जाग्रत्। इनके द्वारा वही अखण्ड, अनन्त बोधस्वरूप आत्मा कभी प्राज्ञ, तो कभी तैजस और कभी विश्वरूपसे प्रतीत होता है ॥ ३१ ॥ मनुष्यको चाहिये कि वह समझे कि स्वप्नमें दीखनेवाले पदार्थोंके समान ही जाग्रत् अवस्थामें इन्द्रियोंके विषय भी प्रतीत हो रहे हैं, वे मिथ्या हैं। इसीलिये उन विषयोंका चिन्तन करनेवाले मन और इन्द्रियोंको रोक ले और मानो सोकर उठा हो, इस प्रकार जगत्के स्वाप्निक विषयोंको त्यागकर मेरा साक्षात्कार करे ॥ ३२ ॥ जिस प्रकार सभी नदियाँ घूम-फिरकर समुद्रमें ही पहुँचती हैं, उसी प्रकार मनस्वी पुरुषोंका वेदाभ्यास, योग-साधन, आत्मानात्म-विवेक, त्याग, तपस्या, इन्द्रियसंयम और सत्य आदि समस्त धर्म, मेरी प्राप्तिमें ही समाप्त होते हैं। सबका सच्चा फल है मेरा साक्षात्कार; क्योंकि वे सब मनको निरुद्ध करके मेरे पास पहुँचाते हैं ॥ ३३ ॥

 

गोपियो ! इसमें सन्देह नहीं कि मैं तुम्हारे नयनोंका ध्रुवतारा हूँ। तुम्हारा जीवन-सर्वस्व हूँ। किन्तु मैं जो तुमसे इतना दूर रहता हूँ, उसका कारण है। वह यही कि तुम निरन्तर मेरा ध्यान कर सको, शरीरसे दूर रहनेपर भी मनसे तुम मेरी सन्निधिका अनुभव करो, अपना मन मेरे पास रखो ॥ ३४ ॥ क्योंकि स्त्रियों और अन्यान्य प्रेमियोंका चित्त अपने परदेशी प्रियतममें जितना निश्चल भावसे लगा रहता है, उतना आँखोंके सामने, पास रहनेवाले प्रियतममें नहीं लगता ॥ ३५ ॥ अशेष वृत्तियोंसे रहित सम्पूर्ण मन मुझमें लगाकर जब तुमलोग मेरा अनुस्मरण करोगी, तब शीघ्र ही सदाके लिये मुझे प्राप्त हो जाओगी ॥ ३६ ॥ कल्याणियो ! जिस समय मैंने वृन्दावनमें शारदीय पूर्णिमाकी रात्रिमें रास-क्रीडा की थी उस समय जो गोपियाँ स्वजनोंके रोक लेनेसे व्रजमें ही रह गयींमेरे साथ रास-विहारमें सम्मिलित न हो सकीं, वे मेरी लीलाओंका स्मरण करनेसे ही मुझे प्राप्त हो गयी थीं। (तुम्हें भी मैं मिलूँगा अवश्य,निराश होनेकी कोई बात नहीं है ) ॥ ३७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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