॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
उद्धव
तथा गोपियों की बातचीत और भ्रमरगीत
श्रीशुक
उवाच
एवं
प्रियतमादिष्टमाकर्ण्य व्रजयोषितः
ता
ऊचुरुद्धवं प्रीतास्तत्सन्देशागतस्मृतीः ॥३८॥
गोप्य
ऊचुः
दिष्ट्याहितो
हतः कंसो यदूनां सानुगोऽघकृत्
दिष्ट्याप्तैर्लब्धसर्वार्थैः
कुशल्यास्तेऽच्युतोऽधुना ॥३९॥
कच्चिद्गदाग्रजः
सौम्य करोति पुरयोषिताम्
प्रीतिं
नः स्निग्धसव्रीड हासोदारेक्षणार्चितः ॥४०॥
कथं
रतिविशेषज्ञः प्रियश्च पुरयोषिताम्
नानुबध्येत
तद्वाक्यैर्विभ्रमैश्चानुभाजितः ॥४१॥
अपि
स्मरति नः साधो गोविन्दः प्रस्तुते क्वचित्
गोष्ठिमध्ये
पुरस्त्रीणाम्ग्राम्याः स्वैरकथान्तरे ॥४२॥
ताः
किं निशाः स्मरति यासु तदा प्रियाभिर्
वृन्दावने
कुमुदकुन्दशशाङ्करम्ये
रेमे
क्वणच्चरणनूपुररासगोष्ठ्याम्
अस्माभिरीडितमनोज्ञकथः
कदाचित् ॥४३॥
अप्येष्यतीह
दाशार्हस्तप्ताः स्वकृतया शुचा
सञ्जीवयन्नु
नो गात्रैर्यथेन्द्रो वनमम्बुदैः ॥४४॥
कस्मात्कृष्ण
इहायाति प्राप्तराज्यो हताहितः
नरेन्द्र
कन्या उद्वाह्य प्रीतः सर्वसुहृद्वृतः ॥४५॥
किमस्माभिर्वनौकोभिरन्याभिर्वा
महात्मनः
श्रीपतेराप्तकामस्य
क्रियेतार्थः कृतात्मनः ॥४६॥
परं
सौख्यं हि नैराश्यं स्वैरिण्यप्याह पिङ्गला
तज्जानतीनां
नः कृष्णे तथाप्याशा दुरत्यया ॥४७॥
क
उत्सहेत सन्त्यक्तुमुत्तमःश्लोकसंविदम्
अनिच्छतोऽपि
यस्य श्रीरङ्गान्न च्यवते क्वचित् ॥४८॥
सरिच्छैलवनोद्देशा
गावो वेणुरवा इमे
सङ्कर्षणसहायेन
कृष्णेनाचरिताः प्रभो ॥४९॥
पुनः
पुनः स्मारयन्ति नन्दगोपसुतं बत
श्रीनिकेतैस्तत्पदकैर्विस्मर्तुं
नैव शक्नुमः ॥५०॥
गत्या
ललितयोदार हासलीलावलोकनैः
माध्व्या
गिरा हृतधियः कथं तं विस्मराम हे ॥५१॥
हे
नाथ हे रमानाथ व्रजनाथार्तिनाशन
मग्नमुद्धर
गोविन्द गोकुलं वृजिनार्णवात् ॥५२॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! अपने प्रियतम श्रीकृष्णका यह संदेशा सुनकर गोपियोंको बड़ा
आनन्द हुआ उनके संदेशसे उन्हें श्रीकृष्णके स्वरूप और एक-एक लीलाकी याद आने लगी।
प्रेमसे भरकर उन्होंने उद्धवजीसे कहा ॥ ३८ ॥
गोपियोंने
कहा—उद्धवजी ! यह बड़े सौभाग्यकी और आनन्दकी बात है कि यदुवंशियोंको सतानेवाला
पापी कंस अपने अनुयायियोंके साथ मारा गया। यह भी कम आनन्दकी बात नहीं है कि
श्रीकृष्णके बन्धु-बान्धव और गुरुजनोंके सारे मनोरथ पूर्ण हो गये तथा अब हमारे
प्यारे श्यामसुन्दर उनके साथ सकुशल निवास कर रहे हैं ॥ ३९ ॥ किन्तु उद्धवजी ! एक
बात आप हमें बतलाइये। ‘जिस प्रकार हम अपनी प्रेमभरी लजीली
मुसकान और उन्मुक्त चितवनसे उनकी पूजा करती थीं और वे भी हमसे प्यार करते थे,
उसी प्रकार मथुराकी स्त्रियोंसे भी वे प्रेम करते हैं या नहीं?’
॥ ४० ॥ तबतक दूसरी गोपी बोल उठी—‘अरी सखी !
हमारे प्यारे श्यामसुन्दर तो प्रेमकी मोहिनी कलाके विशेषज्ञ हैं। सभी श्रेष्ठ
स्त्रियाँ उनसे प्यार करती हैं, फिर भला जब नगरकी स्त्रियाँ
उनसे मीठी-मीठी बातें करेंगी और हाव-भावसे उनकी ओर देखेंगी तब वे उनपर क्यों न
रीझेंगे ?’ ॥ ४१ ॥ दूसरी गोपियाँ बोलीं—‘साधो ! आप यह तो बतलाइये कि जब कभी नागरी नारियोंकी मण्डलीमें कोई बात
चलती है और हमारे प्यारे स्वच्छन्दरूपसे, बिना किसी संकोचके
जब प्रेमकी बातें करने लगते हैं, तब क्या कभी प्रसंगवश हम
गँवार ग्वालिनोंकी भी याद करते हैं ?’ ॥ ४२ ॥ कुछ गोपियोंने
कहा—‘उद्धवजी ! क्या कभी श्रीकृष्ण उन रात्रियोंका स्मरण
करते हैं, जब कुमुदिनी तथा कुन्दके पुष्प खिले हुए थे,
चारों ओर चाँदनी छिटक रही थी और वृन्दावन अत्यन्त रमणीय हो रहा था !
उन रात्रियोंमें ही उन्होंने रास-मण्डल बनाकर हमलोगोंके साथ नृत्य किया था। कितनी
सुन्दर थी वह रास-लीला ! उस समय हमलोगोंके पैरोंके नूपुर रुनझुन-रुनझुन बज रहे थे।
हम सब सखियाँ उन्हींकी सुन्दर-सुन्दर लीलाओंका गान कर रही थीं और वे हमारे साथ
नाना प्रकारके विहार कर रहे थे’ ॥ ४३ ॥ कुछ दूसरी गोपियाँ
बोल उठीं—‘उद्धवजी ! हम सब तो उन्हींके विरहकी आगसे जल रही
हैं। देवराज इन्द्र जैसे-जल बरसाकर वनको हरा-भरा कर देते हैं, उसी प्रकार क्या कभी श्रीकृष्ण भी अपने कर-स्पर्श आदिसे हमें जीवनदान
देनेके लिये यहाँ आवेंगे ?’ ॥ ४४ ॥ तबतक एक गोपीने कहा—‘अरी सखी ! अब तो उन्होंने शत्रुओंको मारकर राज्य पा लिया है; जिसे देखो, वही उनका सुहृद् बना फिरता है। अब वे
बड़े-बड़े नरपतियोंकी कुमारियोंसे विवाह करेंगे, उनके साथ
आनन्दपूर्वक रहेंगे; यहाँ हम गँवारिनोंके पास क्यों आयेंगे ?’
॥ ४५ ॥ दूसरी गोपीने कहा—‘नहीं सखी ! महात्मा
श्रीकृष्ण तो स्वयं लक्ष्मीपति हैं। उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण ही हैं, वे कृतकृत्य हैं। हम वनवासिनी ग्वालिनों अथवा दूसरी राजकुमारियोंसे उनका
कोई प्रयोजन नहीं है। हमलोगोंके बिना उनका कौन-सा काम अटक रहा है ॥ ४६ ॥ देखो वेश्या
होनेपर भी पिङ्गलाने क्या ही ठीक कहा है—संसारमें किसीकी आशा
न रखना ही सबसे बड़ा सुख है।’ यह बात हम जानती हैं, फिर भी हम भगवान् श्रीकृष्णके लौटनेकी आशा छोडऩेमें असमर्थ हैं। उनके
शुभागमनकी आशा ही तो हमारा जीवन है ॥ ४७ ॥ हमारे प्यारे श्यामसुन्दरने, जिनकी कीर्तिका गान बड़े-बड़े महात्मा करते रहते हैं, हमसे एकान्तमें जो मीठी-मीठी प्रेमकी बातें की हैं उन्हें छोडऩेका,
भुलानेका उत्साह भी हम कैसे कर सकती हैं ? देखो
तो, उनकी इच्छा न होनेपर भी स्वयं लक्ष्मीजी उनके चरणोंसे
लिपटी रहती हैं, एक क्षणके लिये भी उनका अङ्ग- सङ्ग छोडक़र
कहीं नहीं जातीं ॥ ४८ ॥ उद्धवजी ! यह वही नदी है, जिसमें वे
विहार करते थे। यह वही पर्वत है, जिसके शिखरपर चढक़र वे
बाँसुरी बजाते थे। ये वे ही वन हैं, जिनमें वे रात्रिके समय
रासलीला करते थे और ये वे ही गौएँ हैं, जिनको चरानेके लिये
वे सुबह-शाम हमलोगोंको देखते हुए जाते-आते थे। और यह ठीक वैसी ही वंशीकी तान हमारे
कानोंमें गूँजती रहती है, जैसी वे अपने अधरोंके संयोगसे
छेड़ा करते थे। बलरामजीके साथ श्रीकृष्णने इन सभीका सेवन किया है ॥ ४९ ॥ यहाँका
एक-एक प्रदेश, एक-एक धूलिकण उनके परम सुन्दर चरणकमलोंसे
चिह्नित है। इन्हें जब-जब हम देखती हैं, सुनती हैं—दिनभर यही तो करती रहती हैं—तब-तब वे हमारे प्यारे
श्यामसुन्दर नन्दनन्दनको हमारे नेत्रोंके सामने लाकर रख देते हैं। उद्धवजी ! हम
किसी भी प्रकार मरकर भी उन्हें भूल नहीं सकतीं ॥ ५० ॥ उनकी वह हंसकी-सी सुन्दर चाल,
उन्मुक्त हास्य, विलासपूर्ण चितवन और मधुमयी
वाणी ! आह ! उन सबने हमारा चित्त चुरा लिया है, हमारा मन
हमारे वशमें नहीं है; अब हम उन्हें भूलें तो किस तरह ?
॥ ५१ ॥ हमारे प्यारे श्रीकृष्ण ! तुम्हीं हमारे जीवनके स्वामी हो।
सर्वस्व हो, प्यारे, तुम लक्ष्मीनाथ हो
तो क्या हुआ ? हमारे लिये तो व्रजनाथ ही हो। हम
व्रजगोपियोंके एकमात्र तुम्हीं सच्चे स्वामी हो। श्यामसुन्दर ! तुमने बार-बार
हमारी व्यथा मिटायी है, हमारे संकट काटे हैं। गोविन्द ! तुम
गौओंसे बहुत प्रेम करते हो। क्या हम गौएँ नहीं हैं ? तुम्हारा
यह सारा गोकुल जिसमें ग्वालबाल, माता-पिता, गौएँ और हम गोपियाँ सब कोई हैं—दु:खके अपार सागरमें
डूब रहा है। तुम इसे बचाओ, आओ, हमारी
रक्षा करो ॥ ५२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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