॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
युगलगीत
विविधगोपचरणेषु
विदग्धो
वेणुवाद्य
उरुधा निजशिक्षाः ।
तव
सुतः सति यदाधरबिम्बे
दत्तवेणुरनयत्
स्वरजातीः ॥ १४ ॥
सवनशस्तदुपधार्य
सुरेशाः
शक्रशर्वपरमेष्ठिपुरोगाः
।
कवय
आनतकन्धरचित्ताः
कश्मलं
ययुरनिश्चिततत्त्वाः ॥ १५ ॥
निजपदाब्जदलैर्ध्वजवज्र
नीरजाङ्कुशविचित्रललामैः
।
व्रजभुवः
शमयन् खुरतोदं
वर्ष्मधुर्यगतिरीडितवेणुः
॥ १६ ॥
व्रजति
तेन वयं सविलास
वीक्षणार्पितमनोभववेगाः
।
कुजगतिं
गमिता न विदामः
कश्मलेन
कवरं वसनं वा ॥ १७ ॥
मणिधरः
क्वचिदागणयन् गा
मालया
दयितगन्धतुलस्याः ।
प्रणयिनोऽनुचरस्य
कदांसे
प्रक्षिपन्
भुजमगायत यत्र ॥ १८ ॥
क्वणितवेणुरववञ्चितचित्ताः
कृष्णमन्वसत
कृष्णगृहिण्यः ।
गुणगणार्णमनुगत्य
हरिण्यो
गोपिका
इव विमुक्तगृहाशाः ॥ १९ ॥
सतीशिरोमणि
यशोदाजी ! तुम्हारे सुन्दर कुँवर ग्वालबालोंके साथ खेल खेलनेमें बड़े निपुण हैं।
रानीजी ! तुम्हारे लाड़ले लाल सबके प्यारे तो हैं ही, चतुर भी बहुत हैं। देखो, उन्होंने बाँसुरी बजाना
किसीसे सीखा नहीं। अपने ही अनेकों प्रकारकी राग-रागिनियाँ उन्होंने निकाल लीं। जब
वे अपने बिम्बा-फल सदृश लाल-लाल अधरोंपर बाँसुरी रखकर ऋषभ, निषाद
आदि स्वरोंकी अनेक जातियाँ बजाने लगते हैं, उस समय वंशीकी
परम मोहिनी और नयी तान सुनकर ब्रह्मा, शङ्कर और इन्द्र आदि
बड़े-बड़े देवता भी—जो सर्वज्ञ हैं—उसे
नहीं पहचान पाते। वे इतने मोहित हो जाते हैं कि उनका चित्त तो उनके रोकनेपर भी
उनके हाथसे निकलकर वंशीध्वनिमें तल्लीन हो ही जाता है, सिर
भी झुक जाता है, और वे अपनी सुध-बुध खोकर उसीमें तन्मय हो
जाते हैं ॥ १४-१५ ॥
अरी
वीर ! उनके चरणकमलोंमें ध्वजा, वज्र, कमल,
अङ्कुश आदिके विचित्र और सुन्दर- सुन्दर चिह्न हैं। जब व्रजभूमि
गौओंके खुरसे खुद जाती है, तब वे अपने सुकुमार चरणोंसे उसकी
पीड़ा मिटाते हुए गजराजके समान मन्दगतिसे आते हैं और बाँसुरी भी बजाते रहते हैं।
उनकी वह वंशीध्वनि, उनकी वह चाल और उनकी वह विलासभरी चितवन
हमारे हृदयमें प्रेमके मिलनकी आकांक्षाका आवेग बढ़ा देती है। हम उस समय इतनी मुग्ध,
इतनी मोहित हो जाती हैं कि हिल- डोलतक नहीं सकतीं, मानो हम जड़ वृक्ष हों ! हमें तो इस बातका भी पता नहीं चलता कि हमारा
जूड़ा खुल गया है या बँधा है, हमारे शरीरपरका वस्त्र उतर गया
है या है ॥ १६-१७ ॥
अरी
वीर ! उनके गलेमें मणियोंकी माला बहुत ही भली मालूम होती है। तुलसीकी मधुर गन्ध
उन्हें बहुत प्यारी है। इसीसे तुलसीकी मालाको तो वे कभी छोड़ते ही नहीं, सदा धारण किये रहते हैं। जब वे श्यामसुन्दर उस मणियोंकी मालासे गौओंकी
गिनती करते-करते किसी प्रेमी सखाके गलेमें बाँह डाल देते हैं और भाव बता-बताकर
बाँसुरी बजाते हुए गाने लगते हैं, उस समय बजती हुई उस
बाँसुरीके मधुर स्वरसे मोहित होकर कृष्णसार मृगोंकी पत्नी हरिनियाँ भी अपना चित्त
उनके चरणोंपर निछावर कर देती हैं और जैसे हम गोपियाँ अपने घर-गृहस्थीकी
आशा-अभिलाषा छोडक़र गुणसागर नागर नन्दनन्दनको घेरे रहतीं हैं, वैसे ही वे भी उनके पास दौड़ आती हैं और वहीं एकटक देखती हुई खड़ी रह जाती
हैं, लौटनेका नाम भी नहीं लेतीं ॥ १८-१९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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