॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
युगलगीत
अनुचरैः
समनुवर्णितवीर्य
आदिपूरुष
इवाचलभूतिः ।
वनचरो
गिरितटेषु चरन्तीः
वेणुनाह्वयति
गाः स यदा हि ॥ ८ ॥
वनलतास्तरव
आत्मनि विष्णुं
व्यञ्जयन्त्य
इव पुष्पफलाढ्याः ।
प्रणतभारविटपा
मधुधाराः
प्रेमहृष्टतनवः
ससृजुः स्म ॥ ९ ॥
दर्शनीयतिलको
वनमाला
दिव्यगन्धतुलसीमधुमत्तैः
।
अलिकुलैरलघु
गीतामभीष्टं
आद्रियन्
यर्हि सन्धितवेणुः ॥ १० ॥
सरसि
सारसहंसविहङ्गाः
चारुगीतहृतचेतस
एत्य ।
हरिमुपासत
ते यतचित्ता
हन्त
मीलितदृशो धृतमौनाः ॥ ११ ॥
सहबलः
स्रगवतंसविलासः
सानुषु
क्षितिभृतो व्रजदेव्यः ।
हर्षयन्
यर्हि वेणुरवेण
जातहर्ष
उपरम्भति विश्वम् ॥ १२ ॥
महदतिक्रमणशङ्कितचेता
मन्दमन्दमनुगर्जति
मेघः ।
सुहृदमभ्यवर्षत्
सुमनोभिः
छायया
च विदधत्प्रतपत्रम् ॥ १३ ॥
अरी
वीर ! जैसे देवता लोग अनन्त और अचिन्त्य ऐश्वर्योंके स्वामी भगवान् नारायणकी
शक्तियोंका गान करते हैं,
वैसे ही ग्वालबाल अनन्तसुन्दर नटनागर श्रीकृष्णकी लीलाओंका गान करते
रहते हैं। वे अचिन्त्य-ऐश्वर्य-सम्पन्न श्रीकृष्ण जब वृन्दावनमें विहार करते रहते
हैं और बाँसुरी बजाकर गिरिराज गोवर्धनकी तराईमें चरती हुई गौओंको नाम ले-लेकर
पुकारते हैं, उस समय वनके वृक्ष और लताएँ फूल और फलोंसे लद
जाती हैं, उनके भारसे डालियाँ झुककर धरती छूने लगती हैं,
मानो प्रणाम कर रही हों, वे वृक्ष और लताएँ
अपने भीतर भगवान् विष्णुकी अभिव्यक्ति सूचित करती हुई-सी प्रेमसे फूल उठती हैं,
उनका रोम-रोम खिल जाता है और सब-की-सब मधुधाराएँ उँड़ेलने लगती हैं
॥ ८-९ ॥
अरी
सखी ! जितनी भी वस्तुएँ संसारमें या उसके बाहर देखनेयोग्य हैं, उनमें सबसे सुन्दर, सबसे मधुर, सबके शिरोमणि हैं—ये हमारे मनमोहन। उनके साँवले
ललाटपर केसरकी खौर कितनी फबती है—बस, देखती
ही जाओ ! गलेमें घुटनोंतक लटकती हुई वनमाला, उसमें पिरोयी
हुई तुलसी की दिव्य गन्ध और मधुर मधु से मतवाले होकर झुंड-के-झुंड भौंरे बड़े
मनोहर एवं उच्च स्वर से गुंजार करते रहते हैं। हमारे नटनागर श्यामसुन्दर भौंरों की
उस गुनगुनाहट का आदर करते हैं और उन्हीं के स्वर में स्वर मिलाकर अपनी बाँसुरी
फूँकने लगते हैं। उस समय सखि ! उस मुनिजन मोहन संगीत को सुनकर सरोवर में रहनेवाले
सारस-हंस आदि पक्षियों का भी चित्त उनके हाथ से निकल जाता है, छिन जाता है। वे विवश होकर प्यारे श्यामसुन्दर के पास आ बैठते हैं तथा
आँखें मूँद, चुपचाप, चित्त एकाग्र करके
उनकी आराधना करने लगते हैं—मानो कोई विहङ्गम वृत्ति के रसिक
परमहंस ही हों, भला कहो तो यह कितने आश्चर्य की बात है ! ॥ १०-११॥
अरी
व्रजदेवियो ! हमारे श्यामसुन्दर जब पुष्पोंके कुण्डल बनाकर अपने कानोंमें धारण कर
लेते हैं और बलरामजीके साथ गिरिराजके शिखरोंपर खड़े होकर सारे जगत्को हर्षित करते
हुए बाँसुरी बजाने लगते हैं—बाँसुरी क्या बजाते हैं, आनन्दमें भरकर उसकी ध्वनिके द्वारा सारे विश्वका आलिङ्गन करने लगते हैं—उस समय श्याम मेघ बाँसुरीकी तानके साथ मन्द-मन्द गरजने लगता है। उसके
चित्तमें इस बातकी शङ्का बनी रहती है कि कहीं मैं जोरसे गर्जना कर उठूँ और वह कहीं
बाँसुरीकी तान के विपरीत पड़ जाय, उसमें बेसुरापन ले आये,
तो मुझसे महात्मा श्रीकृष्णका अपराध हो जायगा। सखी ! वह इतना ही
नहीं करता; वह जब देखता है कि हमारे सखा घनश्यामको घाम लग
रहा है, तब वह उनके ऊपर आकर छाया कर लेता है, उनका छत्र बन जाता है। अरी वीर ! वह तो प्रसन्न होकर बड़े प्रेमसे उनके
ऊपर अपना जीवन ही निछावर कर देता है—नन्हीं-नन्हीं फुहियोंके
रूपमें ऐसा बरसने लगता है, मानो दिव्य पुष्पोंकी वर्षा कर
रहा हो। कभी-कभी बादलोंकी ओटमें छिपकर देवतालोग भी पुष्पवर्षा कर जाया करते हैं ॥
१२-१३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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