॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
युगलगीत
श्रीशुक
उवाच -
गोप्यः
कृष्णे वनं याते तमनुद्रुतचेतसः ।
कृष्णलीलाः
प्रगायन्त्यो निन्युर्दुःखेन वासरान् ॥ १ ॥
श्रीगोप्य
ऊचुः -
वामबाहुकृतवामकपोलो
वल्गितभ्रुरधरार्पितवेणुम्
।
कोमलाङ्गुलिभिराश्रितमार्गं
गोप्य
ईरयति यत्र मुकुन्दः ॥ २ ॥
व्योमयानवनिताः
सह सिद्धैः
विस्मितास्तदुपधार्य
सलज्जाः ।
काममार्गणसमर्पितचित्ताः
कश्मलं
ययुरपस्मृतनीव्यः ॥ ३ ॥
हन्त
चित्रमबलाः श्रृणुतेदं
हारहास
उरसि स्थिरविद्युत् ।
नन्दसूनुरयमार्तजनानां
नर्मदो
यर्हि कूजितवेणुः ॥ ४ ॥
वृन्दशो
व्रजवृषा मृगगावो
वेणुवाद्यहृतचेतस
आरात् ।
दन्तदष्टकवला
धृतकर्णा
निद्रिता
लिखितचित्रमिवासन् ॥ ५ ॥
बर्हिणस्तबकधातुपलाशैः
बद्धमल्लपरिबर्हविडम्बः
।
कर्हिचित्सबल
आलि स गोपैः
गाः
समाह्वयति यत्र मुकुन्दः ॥ ६ ॥
तर्हि
भग्नगतयः सरितो वै
तत्पदाम्बुजरजोऽनिलनीतम्
।
स्पृहयतीर्वयमिवाबहुपुण्याः
प्रेमवेपितभुजाः
स्तिमितापः ॥ ७ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्णके गौओंको चरानेके लिये प्रतिदिन वनमें चले
जानेपर उनके साथ गोपियोंका चित्त भी चला जाता था। उनका मन श्रीकृष्णका चिन्तन करता
रहता और वे वाणीसे उनकी लीलाओंका गान करती रहतीं। इस प्रकार वे बड़ी कठिनाईसे अपना
दिन बितातीं ॥ १ ॥
गोपियाँ
आपसमें कहतीं—अरी सखी ! अपने प्रेमीजनोंको प्रेम वितरण करनेवाले और द्वेष करनेवालोंतकको
मोक्ष दे देनेवाले श्यामसुन्दर नटनागर जब अपने बायें कपोलको बायीं बाँहकी ओर लटका
देते हैं और अपनी भौंहें नचाते हुए बाँसुरीको अधरोंसे लगाते हैं तथा अपनी सुकुमार
अँगुलियोंको उसके छेदोंपर फिराते हुए मधुर तान छेड़ते हैं, उस
समय सिद्धपत्नियाँ आकाशमें अपने पति सिद्धगणोंके साथ विमानोंपर चढक़र आ जाती हैं और
उस तानको सुनकर अत्यन्त ही चकित तथा विस्मित हो जाती हैं। पहले तो उन्हें अपने
पतियोंके साथ रहनेपर भी चित्तकी यह दशा देखकर लज्जा मालूम होती है; परंतु क्षणभरमें ही उनका चित्त कामबाणसे ङ्क्षबध जाता है, वे विवश और अचेत हो जाती हैं। उन्हें इस बातकी भी सुधि नहीं रहती कि उनकी
नीवी खुल गयी है और उनके वस्त्र खिसक गये हैं ॥ २-३ ॥
अरी
गोपियो ! तुम यह आश्चर्यकी बात सुनो ? ये नन्दनन्दन कितने
सुन्दर हैं ? जब वे हँसते हैं तब हास्यरेखाएँ हारका रूप धारण
कर लेती हैं, शुभ्र मोती-सी चमकने लगती हैं। अरी वीर ! उनके
वक्ष:स्थलपर लहराते हुए हारमें हास्यकी किरणें चमकने लगती हैं। उनके वक्ष:स्थलपर
जो श्रीवत्सकी सुनहली रेखा है, वह तो ऐसी जान पड़ती है,
मानो श्याम मेघपर बिजली ही स्थिररूपसे बैठ गयी है। वे जब
दु:खीजनोंको सुख देनेके लिये, विरहियोंके मृतक शरीरमें
प्राणोंका सञ्चार करनेके लिये बाँसुरी बजाते हैं, तब व्रजके
झुंड-के-झुंड बैल, गौएँ और हरिन उनके पास ही दौड़ आते हैं।
केवल आते ही नहीं, सखी ! दाँतोंसे चबाया हुआ घासका ग्रास
उनके मुँहमें ज्यों-का-त्यों पड़ा रह जाता है, वे उसे न निगल
पाते और न तो उगल ही पाते हैं। दोनों कान खड़े करके इस प्रकार स्थिरभावसे खड़े हो
जाते हैं, मानो सो गये हैं, या केवल
भीतपर लिखे हुए चित्र हैं। उनकी ऐसी दशा होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि यह बाँसुरीकी तान उनके चित्तको चुरा लेती है ॥ ४-५ ॥
हे
सखि ! जब वे नन्दके लाड़ले लाल अपने सिर पर मोरपंखका मुकुट बाँध लेते हैं, घुँघराली अलकोंमें फूलके गुच्छे खोंस लेते हैं, रंगीन
धातुओंसे अपना अङ्ग-अङ्ग रँग लेते हैं और नये-नये पल्लवोंसे ऐसा वेष सजा लेते हैं,
जैसे कोई बहुत बड़ा पहलवान हो और फिर बलरामजी तथा ग्वालबलोंके साथ
बाँसुरीमें गौओंका नाम ले-लेकर उन्हें पुकारते हैं; उस समय
प्यारी सखियो ! नदियोंकी गति भी रुक जाती है। वे चाहती हैं कि वायु उड़ाकर हमारे
प्रियतमके चरणोंकी धूलि हमारे पास पहुँचा दे और उसे पाकर हम निहाल हो जायँ,
परंतु सखियो ! वे भी हमारे ही-जैसी मन्दभागिनी हैं। जैसे नन्दनन्दन
श्रीकृष्णका आलिङ्गन करते समय हमारी भुजाएँ काँप जाती हैं और जड़तारूप सञ्चारीभाव का
उदय हो जानेसे हम अपने हाथों को हिला भी नहीं पातीं, वैसे ही
वे भी प्रेमके कारण काँपने लगती हैं। दो चार बार अपनी तरङ्गरूप भुजाओंको
काँपते-काँपते उठाती तो अवश्य हैं, परंतु फिर विवश होकर
स्थिर हो जाती हैं, प्रेमावेशसे स्तम्भित हो जाती हैं ॥ ६-७
॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें