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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
सुदर्शन
और शङ्खचूड का उद्धार
कदाचिदथ
गोविन्दो रामश्चाद्भुतविक्रमः
विजह्रतुर्वने
रात्र्यां मध्यगौ व्रजयोषिताम् ॥२०॥
उपगीयमानौ
ललितं स्त्रीजनैर्बद्धसौहृदैः
स्वलङ्कृतानुलिप्ताङ्गौ
स्रग्विनौ विरजोऽम्बरौ ॥२१॥
निशामुखं
मानयन्तावुदितोडुपतारकम्
मल्लिकागन्धमत्तालि
जुष्टं कुमुदवायुना ॥२२॥
जगतुः
सर्वभूतानां मनःश्रवणमङ्गलम्
तौ
कल्पयन्तौ युगपत्स्वरमण्डलमूर्च्छितम् ॥२३॥
गोप्यस्तद्गीतमाकर्ण्य
मूर्च्छिता नाविदन्नृप
स्रंसद्दुकूलमात्मानं
स्रस्तकेशस्रजं ततः ॥२४॥
एवं
विक्रीडतोः स्वैरं गायतोः सम्प्रमत्तवत्
शङ्खचूड
इति ख्यातो धनदानुचरोऽभ्यगात् ॥२५॥
तयोर्निरीक्षतो
राजंस्तन्नाथं प्रमदाजनम्
क्रोशन्तं
कालयामास दिश्युदीच्यामशङ्कितः ॥२६॥
क्रोशन्तं
कृष्ण रामेति विलोक्य स्वपरिग्रहम्
यथा
गा दस्युना ग्रस्ता भ्रातरावन्वधावताम् ॥२७॥
मा
भैष्टेत्यभयारावौ शालहस्तौ तरस्विनौ
आसेदतुस्तं
तरसा त्वरितं गुह्यकाधमम् ॥२८॥
स
वीक्ष्य तावनुप्राप्तौ कालमृत्यू इवोद्विजन्
विसृज्य
स्त्रीजनं मूढः प्राद्रवज्जीवितेच्छया ॥२९॥
तमन्वधावद्गोविन्दो
यत्र यत्र स धावति
जिहीर्षुस्तच्छिरोरत्नं
तस्थौ रक्षन्स्त्रियो बलः ॥३०॥
अविदूर
इवाभ्येत्य शिरस्तस्य दुरात्मनः
जहार
मुष्टिनैवाङ्ग सहचूडमणिं विभुः ॥३१॥
शङ्खचूडं
निहत्यैवं मणिमादाय भास्वरम्
अग्रजायाददात्प्रीत्या
पश्यन्तीनां च योषिताम् ॥३२॥
एक
दिनकी बात है,
अलौकिक कर्म करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी रात्रिके समय
वनमें गोपियोंके साथ विहार कर रहे थे ॥ २० ॥ भगवान् श्रीकृष्ण निर्मल पीताम्बर और
बलरामजी नीलाम्बर धारण किये हुए थे। दोनोंके गलेमें फूलोंके सुन्दर-सुन्दर हार लटक
रहे थे तथा शरीरमें अङ्गराग, सुगन्धित चन्दन लगा हुआ था और
सुन्दर-सुन्दर आभूषण पहने हुए थे। गोपियाँ बड़े प्रेम और आनन्दसे ललित स्वरमें
उन्हींके गुणोंका गान कर रही थीं ॥ २१ ॥ अभी-अभी सायंकाल हुआ था। आकाशमें तारे उग
आये थे और चाँदनी छिटक रही थी। बेलाके सुन्दर गन्धसे मतवाले होकर भौंरे इधर-उधर
गुनगुना रहे थे तथा जलाशयमें खिली हुई कुमुदिनीकी सुगन्ध लेकर वायु मन्द-मन्द चल
रही थी। उस समय उनका सम्मान करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीने एक ही साथ
मिलकर राग अलापा। उनका राग आरोह-अवरोह स्वरोंके चढ़ाव-उतारसे बहुत ही सुन्दर लग
रहा था। वह जगत्के समस्त प्राणियोंके मन और कानोंको आनन्दसे भर देनेवाला था ॥
२२-२३ ॥ उनका वह गान सुनकर गोपियाँ मोहित हो गयीं। परीक्षित् ! उन्हें अपने
शरीरकी भी सुधि नहीं रही कि वे उसपरसे खिसकते हुए वस्त्रों और चोटियोंसे बिखरते
हुए पुष्पोंको सँभाल सकें ॥ २४ ॥
जिस
समय बलराम और श्याम दोनों भाई इस प्रकार स्वच्छन्द विहार कर रहे थे और उन्मत्तकी
भाँति गा रहे थे,
उसी समय वहाँ शङ्खचूड नामक एक यक्ष आया। वह कुबेरका अनुचर था ॥ २५ ॥
परीक्षित् ! दोनों भाइयोंके देखते-देखते वह उन गोपियोंको लेकर बेखटके उत्तरकी ओर
भाग चला। जिनके एकमात्र स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं, वे
गोपियाँ उस समय रो-रोकर चिल्लाने लगीं ॥ २६ ॥ दोनों भाइयोंने देखा कि जैसे कोई
डाकू गौओंको लूट ले जाय, वैसे ही यह यक्ष हमारी प्रेयसियोंको
लिये जा रहा है और वे ‘हा कृष्ण ! हा राम !’ पुकारकर रो पीट रही हैं। उसी समय दोनों भाई उसकी ओर दौड़ पड़े ॥ २७ ॥ ‘डरो मत, डरो मत’ इस प्रकार
अभयवाणी कहते हुए हाथमें शालका वृक्ष लेकर बड़े वेगसे क्षणभरमें ही उस नीच यक्षके
पास पहुँच गये ॥ २८ ॥ यक्षने देखा कि काल और मृत्युके समान ये दोनों भाई मेरे पास
आ पहुँचे। तब वह मूढ़ घबड़ा गया। उसने गोपियोंको वहीं छोड़ दिया, स्वयं प्राण बचानेके लिये भागा ॥ २९ ॥ तब स्त्रियोंकी रक्षा करनेके लिये
बलरामजी तो वहीं खड़े रह गये, परंतु भगवान् श्रीकृष्ण
जहाँ-जहाँ वह भागकर गया, उसके पीछे-पीछे दौड़ते गये। वे
चाहते थे कि उसके सिरकी चूड़ामणि निकाल लें ॥ ३० ॥ कुछ ही दूर जानेपर भगवान् ने
उसे पकड़ लिया और उस दुष्टके सिरपर कसकर एक घूँसा जमाया और चूड़ामणिके साथ उसका
सिर भी धड़से अलग कर दिया ॥ ३१ ॥ इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण शङ्खचूड को मारकर और
वह चमकीली मणि लेकर लौट आये तथा सब गोपियोंके सामने ही उन्होंने बड़े प्रेमसे वह
मणि बड़े भाई बलरामजीको दे दी ॥ ३२ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे
पूर्वार्धे शङ्खचूडवधो नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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