॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
युगलगीत
कुन्ददामकृतकौतुकवेषो
गोपगोधनवृतो
यमुनायाम् ।
नन्दसूनुरनघे
तव वत्सो
नर्मदः
प्रणयिणां विजहार ॥ २० ॥
मन्दवायुरुपवात्यनकूलं
मानयन्
मलयजस्पर्शेन ।
वन्दिनस्तमुपदेवगणा
ये
वाद्यगीतबलिभिः
परिवव्रुः ॥ २१ ॥
वत्सलो
व्रजगवां यदगध्रो
वन्द्यमानचरणः
पथि वृद्धैः ।
कृत्स्नगोधनमुपोह्य
दिनान्ते
गीतवेणुरनुगेडितकीर्तिः
॥ २२ ॥
उत्सवं
श्रमरुचापि दृशीनां
उन्नय
खुररजश्छुरितस्रक् ।
दित्सयैति
सुहृदासिष एष
देवकीजठरभूरुडुराजः
॥ २३ ॥
मदविघूर्णितलोचन
ईषन्
मानदः
स्वसुहृदां वनमाली ।
बदरपाण्डुवदनो
मृदुगण्डं
मण्डयन्
कनककुण्डललक्ष्म्या ॥ २४ ॥
यदुपतिर्द्विरदराजविहारो
यामिनीपतिरिवैष
दिनान्ते ।
मुदितवक्त्र
उपयाति दुरन्तं
मोचयन्
व्रजगवां दिनतापम् ॥ २५ ॥
श्रीशुक
उवाच -
एवं
व्रजस्त्रियो राजन् कृष्णलीलानुगायतीः ।
रेमिरेऽहःसु
तच्चित्ताः तन्मनस्का महोदयाः ॥ २६ ॥
नन्दरानी
यशोदाजी ! वास्तवमें तुम बड़ी पुण्यवती हो। तभी तो तुम्हें ऐसे पुत्र मिले हैं।
तुम्हारे वे लाड़ले लाल बड़े प्रेमी हैं, उनका चित्त बड़ा
कोमल है। वे प्रेमी सखाओंको तरह-तरहसे हास- परिहासके द्वारा सुख पहुँचाते हैं।
कुन्दकलीका हार पहनकर जब वे अपनेको विचित्र वेषमें सजा लेते हैं और ग्वालबाल तथा
गौओंके साथ यमुनाजीके तटपर खेलने लगते हैं, उस समय मलयज
चन्दनके समान शीतल और सुगन्धित स्पर्शसे मन्द-मन्द अनुकूल बहकर वायु तुम्हारे
लालकी सेवा करती है और गन्धर्व आदि उपदेवता वंदीजनोंके समान गा-बजाकर उन्हें
सन्तुष्ट करते हैं तथा अनेकों प्रकारकी भेंटें देते हुए सब ओरसे घेरकर उनकी सेवा
करते हैं ॥ २०-२१ ॥
अरी
सखी ! श्यामसुन्दर व्रजकी गौओंसे बड़ा प्रेम करते हैं। इसीलिये तो उन्होंने
गोवर्धन धारण किया था। अब वे सब गौओंको लौटाकर आते ही होंगे; देखो, सायंकाल हो चला है। तब इतनी देर क्यों होती है,
सखी ? रास्तेमें बड़े-बड़े ब्रह्मा आदि
वयोवृद्ध और शङ्कर आदि ज्ञानवृद्ध उनके चरणोंकी वन्दना जो करने लगते हैं। अब
गौओंके पीछे-पीछे बाँसुरी बजाते हुए वे आते ही होंगे। ग्वालबाल उनकी कीर्तिका गान
कर रहे होंगे। देखो न, यह क्या आ रहे हैं। गौओंके खुरोंसे
उड़-उडक़र बहुत-सी धूल वनमालापर पड़ गयी है। वे दिनभर जंगलोंमें घूमते-घूमते थक गये
हैं। फिर भी अपनी इस शोभासे हमारी आँखोंको कितना सुख, कितना
आनन्द दे रहे हैं। देखो, ये यशोदाकी कोखसे प्रकट हुए सबको
आह्लादित करनेवाले चन्द्रमा हम प्रेमीजनोंकी भलाईके लिये, हमारी
आशा-अभिलाषाओंको पूर्ण करनेके लिये ही हमारे पास चले आ रहे हैं ॥२२-२३ ॥
सखी
! देखो कैसा सौन्दर्य है ! मदभरी आँखें कुछ चढ़ी हुई हैं। कुछ-कुछ ललाई लिये हुए
कैसी भली जान पड़ती हैं। गलेमें वनमाला लहरा रही है। सोनेके कुण्डलोंकी कान्तिसे
वे अपने कोमल कपोलोंको अलंकृत कर रहे हैं। इसीसे मुँहपर अधपके बेरके समान कुछ
पीलापन जान पड़ता है और रोम-रोमसे विशेष करके मुखकमलसे प्रसन्नता फूटी पड़ती है।
देखो,
अब वे अपने सखा ग्वालबालोंका सम्मान करके उन्हें विदा कर रहे हैं।
देखो, देखो सखी ! व्रजविभूषण श्रीकृष्ण गजराजके समान मदभरी
चालसे इस सन्ध्या-वेलामें हमारी ओर आ रहे हैं। अब व्रजमें रहनेवाली गौओंका,
हमलोगोंका दिनभरका असह्य विरह-ताप मिटानेके लिये उदित होनेवाले
चन्द्रमाकी भाँति ये हमारे प्यारे श्यामसुन्दर समीप चले आ रहे हैं ॥ २४-२५ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! बड़भागिनी गोपियोंका मन श्रीकृष्णमें ही लगा रहता था। वे
श्रीकृष्णमय हो गयी थीं। जब भगवान् श्रीकृष्ण दिनमें गौओंको चरानेके लिये वनमें
चले जाते, तब वे उन्हींका चिन्तन करती रहतीं और अपनी-अपनी
सखियोंके साथ अलग-अलग उन्हींकी लीलाओंका गान करके उसीमें रम जातीं। इस प्रकार उनके
दिन बीत जाते ॥ २६ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे
पूर्वार्धे गोपिकायुगलगीतं नाम पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें